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सच्चे प्रेम को कैसे परखे?

प्रश्नकर्ता : मोह और प्रेम, इन दोनों के बीच की भेदरेखा क्या है?

दादाश्री : यह पतंगा है न, यह पतंगा दीये के पीछे पड़कर और याहोम हो जाता है न? वह खुद की ज़िन्दगी खतम कर डालता है, वह मोह कहलाता है। जब कि प्रेम टिकता है, प्रेम टिकाऊ होता है, वह मोह नहीं होता।

मोह मतलब यूज़लेस जीवन। वह तो अंधे होने के बराबर है। अंधा व्यक्ति कीड़े की तरह घूमता है और मार खाता है, उसके जैसा। और प्रेम तो टिकाऊ होता है। उसमें तो सारी ज़िन्दगी का सुख चाहिए होता है। वह तात्कालिक सुख ढूंढे ऐसा नहीं न!

यानी यह सब मोह ही है न! मोह मतलब खुला दगा-मार। मोह मतलब हंड्रेड परसेन्ट दगे निकले हैं।

प्रश्नकर्ता : पर यह मोह है और यह प्रेम है ऐसा सामान्य व्यक्ति को किस तरह पता चले? एक व्यक्ति को सच्चा प्रेम है या यह उसका मोह है, ऐसा खुद को कैसे पता चले?

दादाश्री : वह तो झिड़कें, तब अपने आप पता चलता है। एक दिन झिड़क दें और वह चिढ़ जाए, तब समझ लें कि यह युज़लेस है! फिर दशा क्या हो? इससे तो पहले से ही खड़काएँ। रुपया खड़काकर देखते हैं, कलदार है या खोटा है वह तुरन्त पता चल जाता है न? कोई बहाना निकालकर और खड़काएँ। अभी तो निरे भयंकर स्वार्थ! स्वार्थ के लिए भी कोई प्रेम दिखाता है। पर एक दिन खड़काकर देखें तो पता चले कि यह सच्चा प्रेम है या नहीं?

प्रश्नकर्ता : सच्चा प्रेम हो वहाँ कैसा होता है, खड़काए तब भी?

दादाश्री : वह खड़काए तब भी शांत रहकर खुद उसे नुकसान न हो वैसा करता है। सच्चा प्रेम हो, वहाँ गले उतार लेता है। अब, बिलकुल बदमाश हो न तो वह भी गले उतार लेता है।

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