अक्रम विज्ञान, एक ऐसा आध्यात्मिक विज्ञान है जो व्यवहार में उपयोगी है और मोक्ष प्राप्ति के लिए एक ‘शार्टकट’ रास्ता है।
अधिक पढ़ें21 मार्च |
दादा भगवान फाउन्डेशन प्रचार करता हैं, अक्रम विज्ञान के आध्यात्मिक विज्ञान का – आत्मसाक्षात्कार के विज्ञान का। जो परम पूज्य दादा भगवान द्वारा बताया गया है।
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दोष देखना बंद कर दो न!
प्रश्नकर्ता : यदि दोष नहीं देखें तो दुनिया की दृष्टि से हम एक्सेस फूल (अधिक मूर्ख) नहीं लगेंगे?
दादाश्री : मतलब दोष देखने से सफल होते हैं हम?
प्रश्नकर्ता : दोष देखने से नहीं, पर डिस्टिंक्शन करना कि यह मनुष्य ऐसा है, यह मनुष्य ऐसा है।
दादाश्री : नहीं, उसीसे तो जोखिम है न सारा। वह प्रिज्युडिस (पूर्वाग्रह) कहलाता है। प्रिज्युडिस किसीके प्रति रखना नहीं चाहिए। कल कोट चुरा ले गया हो, फिर भी आज चुरा जाएगा, ऐसा हमें नहीं रखना चाहिए। पर हमें सिर्फ कोट सुरक्षित जगह पर रखना चाहिए। सावधानी रखनी चाहिए हमें। पिछले दिन कोट यदि बाहर रखा था तो आज ठिकाने पर रख देना चाहिए। लेकिन प्रिज्युडिस नहीं रखनी चाहिए। इससे तो ये दुःख हैं न, नहीं तो वर्ल्ड में दुःख क्यों होते?! और भगवान दुःख देते नहीं, सब आपके ही खड़े किए हुए दुःख हैं, और वे आपको परेशान करते हैं। उसमें भगवान क्या करें? किसी पर प्रिज्युडिस रखना मत। किसीका दोष देखना मत। यह यदि समझ जाओगे तो हल आ जाएगा।
आप प्रतिक्रमण नहीं करोगे तो आपका अभिप्राय बाकी रहा, इसलिए आप बंधन में आए। जो दोष हुआ उसमें आपका अभिप्राय रहा और अभिप्रायों से मन खड़ा हुआ है। मुझे किसी भी मनुष्य के लिए ज़रा-सा भी अभिप्राय नहीं है। क्योंकि एक ही बार देख लेने के बाद मैं उसके लिए दूसरा अभिप्राय बदलता नहीं हूँ।
संयोगवश कोई मनुष्य चोरी करता हो, वह मैं खुद देखूँ, तब भी उसे मैं चोर नहीं कहता हूँ, क्योंकि वह संयोगवश है। जगत् के लोग तो जो पकड़ा गया उसे चोर कहते हैं। यह संयोगवश चोर था या हमेशा से चोर था, ऐसी कुछ जगत् को पड़ी नहीं है। मैं तो हमेशा के चोर को चोर कहता हूँ। अभी तक मैंने किसी भी मनुष्य के बारे में अभिप्राय नहीं बदला है। 'व्यवहार आत्मा' संयोगाधीन है और 'निश्चय आत्मा' से एकता है। हमें पूरे वर्ल्ड के साथ मतभेद नहीं है।
प्रश्नकर्ता : वह तो होगा ही नहीं, क्योंकि आपको तो कोई मनुष्य दोषित लगता ही नहीं न, निश्चय से।
दादाश्री : दोषित नहीं लगता, क्योंकि वास्तव में ऐसा होता नहीं है। यह जो दोषित लगता है न वह दोषित दृष्टि के कारण दोषित लगता है! यदि आपकी दृष्टि निर्दोष हो जाए तो दोषित लगेगा ही नहीं कोई!
Book Name: निजदोष दर्शन से... निर्दोष! (Page #61 Paragragh #2 to #7 Page #62 Paragragh #1, #2, #3, #4)
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