प्रश्नकर्ता : मेरे घर में हर तरह की मुश्किलें ही क्यों रहा करती हैं? धंधे में, वाइफ को, घर में सभी को कोई न कोई तकली़फ रहा ही करती है।
दादाश्री : हम, लोगों को तकली़फें दें, इसलिए फिर हमारे यहाँ तकली़फें रहती है। हम, लोगों को सुख पहुँचाएँ, तो हमारे यहाँ सुख रहेगा। यदि सुख चाहिए तो लोगों को सुख पहुँचाइये और तकली़फें चाहिए तो तकली़फ दिया करें, आपको जो चाहिए वह दूसरों को दीजिए। हमारे यहाँ जो कुछ आता है उस पर से समझ लेना कि हमने दूसरों को क्या दिया था। यानी, सुख चाहिए तो सुख देने का प्रयत्न कीजिए, शुरूआत कीजिए।
यह जगत तो व्यवहार स्वरूप है, जो कहता है, 'देकर लीजिए', तकली़फें आती हैं तो हमें समझना चाहिए कि हमने लोगों को तकली़फें ही दी हैं, दूसरा धंधा ही नहीं लगाया। और सुख मिलता है तो समझना कि हमने दूसरों को सुख दिया है।
प्रश्नकर्ता : पहले जो तकली़फें दी होती हैं, वे तकली़फें आज आती हैं। अब जब ये तकलीफें हैं तब दूसरों को सुख कैसे दे सकें?
दादाश्री : अब तो सुख देने का भाव कीजिए और फिर से किसीको तकली़फ मत देना। कोई दो गालियाँ दे जाए तब आप दूसरी पाँच गालियाँ मत परोसना और दो गालियाँ जमा कर लेना। आपने जो दो गालियाँ दी थी वे वापस आई हैं। इसलिए दो गालियाँ जमा कर लीजिए। लोग तो, कोई दो गालियाँ दे तब उसे जमा करने के बजाय दूसरी पाँच उधार देते हैं। अरे! उसके साथ व्यापार चालू क्यों रखते हैं? यानी यह सारा महाजनी का हिसाब है। फिर जगत चाहे उसे कोई भी नाम दे, या ऋणानुबंध कहे, मगर सारा महाजनी का हिसाब है। मतलब, यदि पसंद है तो उधार दीजिए मगर वह उधारी वापस आएगी। यह तो जमा-उधार का खेल है। उधार दिया था वही वापस आता है। इसमें भगवान हाथ डालते ही नहीं है। तकली़फ पसंद नहीं है तो फिर तकली़फें उधार देना बंद कर दीजिए।
दादावाणी-अगस्त-2008 (Page #17)
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