सामनेवाले का दोष किसी जगह हैं ही नहीं, सामनेवाले का क्या दोष! वे तो यही मानकर बैठे हैं, कि यह संसार, यही सुख है और यही बात सच्ची है। हम ऐसा मनवाने जाएँ कि आपकी मान्यता गलत है, तो वह अपनी ही भूल है। लोगों को दूसरों के दोष ही देखने की आदत पड़ी है। किसीके दोष होते ही नहीं हैं। बाहर तो आपको दाल-चावल, सब्ज़ी-रोटी सब बनाकर, रस-रोटी बनाकर देते हैं सभी, परोसते हैं, ऊपर से घी भी रख जाते हैं, गेहूँ बीनते हैं, आपको पता भी नहीं चलता। गेहूँ बीनकर पिसवाते हैं। यदि कभी बाहरवाले कोई दुःख देते हों तो गेहूँ किसलिए बीनेंगे? इसलिए बाहर कोई दुःख देते नहीं हैं। दुःख आपका, अंदर से ही आता है।
सामनेवाले का दोष ही नहीं देखें, दोष देखने से तो संसार बिगड़ जाता है। खुद के ही दोष देखते रहना है। अपने ही कर्मों के उदय का फल है यह। इसलिए कुछ कहने को ही नहीं रहा न! ये तो सभी अन्योन्य दोष देते हैं कि आप ऐसे हो, आप वैसे हो, और साथ में टेबल पर बैठकर खाते हैं। ऐसे अंदर बैर बँधता है। इस बैर से दुनिया खड़ी रही है। इसलिए तो हमने कहा कि 'समभाव से निकाल करना।' उससे बैर बंद होते हैं।
Book Name: निजदोष दर्शन से... निर्दोष! (Page #26 Paragragh #2,#3)
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