दो पीढ़ियों के बीच के अंतर को कम करने के लिए माता-पिता को पहल करनी होगी। जब बच्चा सोलह वर्ष का हो जाए, तो आपको उसके साथ मित्र की तरह व्यवहार करना चाहिए। उसके साथ मित्र की तरह बातें करोगे तो आपके शब्द अधिक असरकारक होंगे। यदि माता-पिता एक माता या पिता की तरह रहेंगे तो बच्चा आपकी बातों पर कभी ध्यान नहीं देगा।
टीनएजर के साथ व्यवहार करने से पहले उसके साथ मित्र की तरह किस तरह रहें यह जानना महत्वपूर्ण है। इसके लिए नीचे कुछ टिप्स दिए गए हैः
आज की जनरेशन के बारे में दादाश्री ने खोज निकाला है कि आज का युवा वर्ग हेल्दी माइन्डवाला है। खुद के मोह में मस्त रहते हैं, लेकिन कम कषाय, कम ममता, तेजो द्वेष जैसे अपलक्षणों से परे, पढ़े-लिखे लेकिन कम समझदार।
ज़माने के अनुसार एडजस्ट हो जाओ। बेटा नई टोपी पहनकर आए, तब ऐसा मत कहना कि, ऐसी कहाँ से ले आया? उसके बजाय एडजस्ट हो जाना कि, ‘इतनी अच्छी टोपी कहाँ से लाया? कितने में लाया? बहुत सस्ती मिली?’ इस प्रकार एडजस्ट हो जाना। अपना धर्म क्या कहता है कि ‘असुविधा में सुविधा देखो।’ पंचेन्द्रिय ज्ञान असुविधा दिखाता है। और आत्मज्ञान सुविधा दिखाता है। इसलिए आत्मा में रहो।
कई माता-पिता अपनी युवा बेटी की चिंता करते हैं। परम पूज्य दादाश्री निम्नलिखित बातचीत द्वारा व्यवहार कैसे निभाएं इसकी समझ प्रदान करते हैः
प्रश्नकर्ताः मैं अपने किशोर (युवा) बच्चों को स्वतंत्रता नहीं दे सकता। मुझे उन पर भरोसा नहीं है। उन पर शंका होती है। मुझे क्या करना चाहिए?
दादाश्रीः मैंने एक आदमी को उसकी बेटी के बारे में सावधान किया था। उसे मैंने पहले से समझाया था कि ‘यह तो कलियुग है, इस कलियुग का असर बेटी पर भी होता है। इसलिए सावधान रहना।’ वह आदमी समझ गया और जब उसकी बेटी दूसरे के साथ भाग गई, तब उस आदमी ने मुझे याद किया और मेरे पास आकर मुझसे कहने लगा, ‘आपने कही थी वह बात सच्ची थी। अगर आपने मुझे ऐसी बात नहीं बताई होती तो मुझे ज़हर पीना पड़ता।’ ऐसा है यह जगत, पोलंपोल (गड़बड़) ! जो होता है उसे स्वीकार करना चाहिए, जो कुछ भी होता है वह न्याय है। उसके लिए क्या ज़हर पीएँ? नहीं तब तू पागल कहलाएगा। यह तो कपड़ें ढँककर आबरू रखते हैं और कहते हैं कि हम खानदानी हैं।
हमारा एक खास संबंधी था, उसकी चार बेटियाँ थीं। वह बहुत जागृत था, मुझसे कहता है, ‘ये बेटियाँ बड़ी हो गई, कॉलेज गई, लेकिन मुझे इन पर विश्वास नहीं होता।’ उस पर मैंने कहा, ‘कॉलेज साथ में जाना और वे कॉलेज से निकलें तब पीछे-पीछे आना।’ इस प्रकार एक बार जाएगा पर दूसरी बार क्या करेगा? बीवी को भेजेगा? अरे, विश्वास कहाँ रखना है और कहाँ नहीं रखना, इतना भी नहीं समझता? हमें बेटी से इतना कह देना चाहिए, ‘देखो बेटी, हम अच्छे घर के लोग हम खानदानी, कुलवान हैं।’ इस प्रकार उसे सावधान कर देना। बाद में जो हुआ सो ‘करेक्ट’, उस पर शंका नहीं करने की। कितने शंका करते होंगे? जो इस मामले में जागृत हैं, वे शंका करते रहते हैं। ऐसा संशय रखने से कब अंत आएगा?
इसलिए किसी भी प्रकार की शंका हो तो उत्पन्न होने से पहले ही उखाड़ कर फेंक देना। यह तो बेटियाँ बाहर घूमने-फिरने जाती हैं, खेलने जाती हैं, उसकी शंका उत्पन्न हुई तो हमारा सुख-चैन टिकता है? नहीं।
अतः कभी बेटी रात देर से आए तो भी शंका मत करना। शंका निकाल दो तो कितना लाभ हो? बिना वजह डराकर रखने का क्या अर्थ है? एक जन्म में कुछ परिवर्तन होनेवाला नहीं। उन लड़कियों को बिना वजह दुःख मत पहुँचाना, बच्चों को दुःख नहीं देना। बस इतना जरूर कहना कि, ‘बेटी, तू बाहर जाती है लेकिन देर मत करना, हम खानदानी लोगों में से हैं, हमें यह शोभा नहीं देता, इसलिए ज्यादा देर मत करना।’ इस तरह सब बात करना, समझाना। लेकिन शंका करना ठीक नहीं होगा कि ‘किसके साथ घूम रही होगी, क्या कर रही होगी?’ और कभी रात बारह बजे आए, तब भी दूसरे दिन कहना कि, ‘बेटी, ऐसा नहीं होना चाहिए।’ उसे अगर घर से बाहर कर दें तो वह किसके वहाँ जाएगी। उसका ठिकाना नहीं। फायदा किस में है? कम से कम नुकसान हो, उसमें फायदा है न? कम से कम नुकसान हो, वही फायदेमंद। इसलिए मैंने सभी से कहा है कि ‘रात को देर से आएँ तो भी लड़कियों को घर में आने देना। उन्हें बाहर मत निकाल देना।’ वर्ना ये तो बाहर से ही निकाल दें, ऐसे गरम मिज़ाज लोग हैं! काल कैसा विचित्र है! कितना दुःखदाई काल है! और ऊपर से यह कलियुग है, इसलिए घर में बिठाकर उन्हें समझाना।
दादाश्रीः बेटी अपना हिसाब(कर्म) लेकर आई होती है। उनकी शादी की चिंता नहीं करनी चाहिए। बेटी के बारे में चिंता आपको नहीं करनी है। बेटी के आप पालक हो। बेटी अपने लिए लड़का भी लेकर आई होती है। हमें किसी को कहने जाने की जरूरत नहीं कि हमारी बेटी है, उसके लिए लड़के को जन्म देना। क्या ऐसा कहने जाना पड़ता है? अर्थात अपना सबकुछ लेकर आई होती है। तब बाप कहेगा, ‘यह पच्चीस साल की हुई, अभी भी उसका ठीकाना नहीं हुआ, ऐसा है-वैसा है,’ यों सारा दिन गाता रहता है। अरे! वहाँ पर लड़का सत्ताईस का हुआ है लेकिन तुझे मिला नहीं, क्यों शोर मचा रहा है? सो जा चुपचाप! वह बेटी अपना टाइमिंग (समय) सेट करके आई है।
चिंता करने से तो अंतराय कर्म होता है। वह कार्य विलंबित होता है। हमें किसी ने बताया हो कि फलाँ जगह पर एक लड़का है, तो हमें प्रयत्न करना है। चिंता करने को भगवान ने ‘ना’ बोला है। चिंता करने से तो एक अंतराय और पड़ता है और वीतराग भगवान ने क्या कहा है कि ‘आप चिंता करते हो तो आप ही मालिक हो क्या? आप ही दुनिया चलाते हो?’ इसे ऐसे देखें तो पता चले कि अपने को तो संडास जाने की भी स्वतंत्र शक्ति नहीं है। अगर बंद हो जाए तो डॉक्टर बुलाना पड़ता है। तब ऐसा लगता है कि यह शक्ति हमारी है, परंतु यह शक्ति हमारी नहीं है। क्या यह किसी दूसरी शक्ति के अधीन नहीं है ?
१. संसार में दु:ख यानी क्या? तो, कुशंका से खड़े हुए दु:ख।
२. इस जगत में, कभी भी किसी पर शंका नहीं करनी चाहिए। सच्चा हो तब भी शंका नहीं करनी चाहिए। शंका करना वह भयंकर गुनाह है।
३. चिंता क्यों होती है? विचार आए और उसमें तन्मयाकार होने से चिंता होती है।
४. चिंता करने के बजाय निश्चिंत रह पाए उसे ‘विज्ञान’ कहा जाता है! और लोग तो ‘इज़ी चेयर’ में बैठते हुए भी ‘अनइज़ी’ दिखाई देते हैं!
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