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समाधि मरण मुमकिन है?

समाधि मरण यानी क्या?

आम तौर पर जिस घर में मृत्यु हुई हो उस घर का माहौल कैसा होता है? हर तरफ़ उदासी और शोक का माहौल होता है। कोई बिलख बिलखकर रोता है, कोई विलाप कर रहा होता है तो कोई छाती कूट रहा होता है। मृतक के पार्थिव शरीर को सफ़ेद चद्दर ओढ़ाकर, दिया, अगरबत्ती किए होते हैं। स्वजन के हँसते हुए फ़ोटोग्राफ को सुंदर फ्रेम में मढ़वाकर, हार पहनाया गया होता है, लेकिन इस फोटो के अलावा बाकी अगल-बगल के सभी लोग रोते हैं। इस रोने-धोने के बीच ही परिवार का एक ज़िम्मेदार व्यक्ति लगातार फोन पर नज़र आता है। एक तरफ़ व्यक्ति के अवसान का दुःख और वहीं दूसरी तरफ़ डेथ सर्टिफिकेट प्राप्त करने के लिए हॉस्पिटल के चक्कर, स्मशान में अंतिम क्रियाएँ करने की तैयारियाँ और स्वजनों को सांत्वना देते हुए फोन का मारा! इन सब के बीच अंदर-बाहर मानो कोलाहल मच गया हो। इतना कम हो कि उसमें एक-एक रिश्तेदार घर पर आते हैं और मृत व्यक्ति के परिवार वालों के प्रति दया जताते हैं और मृत व्यक्ति की यादें ताज़ा करके गले लगकर ज़ोर-ज़ोर से रोते हैं। जैसे जैसे ऐसा रोना-धोना होता है वैसे परिवार वालों का दर्द दुगना हो जाता है। आखिर स्मशान तक रोना-धोना जारी रहता है। घर वापस आने पर सूतक की क्रिया-विधियाँ होती है और उसके बाद लगातार तेरह दिनों तक शोक मनाया जाता है।

और इससे बिल्कुल विरुद्ध माहौल जहाँ हो वह समाधि मरण! समाधि मरण में मृत्यु के बाद रोना-धोना और फूट फूटकर रोना नहीं होता। घर के लोग स्थिर और गंभीर दिखते हैं, पर किसी को दुःख या शोक नहीं होता। रोने-धोने के बजाय भगवान के नाम की शांत धुन बजती है। परिवार के लोग रोने के बदले मृतक को फूल चढ़ाकर उनके आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करते हैं। अगरबत्ती की सुगंध में जैसे उदासी और शोक दोनों पिघल रहे हों ऐसा लगता है। हर किसी के चेहरे पर स्वस्थता और शांति नज़र आते हैं। ऐसा अलौकिक वातावरण होता है कि मानो मृत्यु मृत्यु नहीं, पर जैसे महोत्सव बन गई हो! ऐसा जब व्यक्ति संपूर्ण समाधि दशा में देह का त्याग करता है तब मुमकिन होता है।

दुनिया में ऐसी मान्यताएँ प्रचलित हैं कि अगर काशी जैसे तीर्थधाम में मृत्यु हो जाए तब उस व्यक्ति का जन्म सुधरता है या उसे मुक्ति मिलती है। लेकिन हक़ीकत तो यह है कि मुक्ति का आधार मृत्यु किस स्थान पर होती है इसके ऊपर नहीं, बल्कि व्यक्ति की आंतरिक स्थिति कैसी है उसके ऊपर है। धार्मिक क्षेत्र आंतरिक स्थिति को ऊँची लाने में मददरूप हो सकता है, लेकिन यह एकमात्र कारण नहीं होता। जबकि आत्मा के अनुभव के साथ, निजस्वरूप की स्थिरता के साथ मृत्यु हो तो मृत्यु किसी भी स्थान पर हो, तो भी वह महोत्सव बन जाती है!

समाधि दशा

समाधि मरण में मृत्यु पाने वाले व्यक्ति की दशा बहुत ऊँची होती है। ऐसी दशा में देह को दर्द होता है फिर भी खुद को कुछ भी स्पर्श नहीं करता। मृत्यु के समय खुद देह से अलग ही होते हैं। व्यक्ति को “मैं मर रहा हूँ” ऐसा होता ही नहीं और देह का हिसाब खत्म होते होते देह छूटता है। अंतिम पलों में मृत्यु पाने वाले व्यक्ति को “मैं आत्मा हूँ” ऐसी जागृति निरंतर रहती है। “मैं तो कायम का हूँ, शाश्वत हूँ, अमर हूँ” ऐसी दशा में ही रहते हैं। इस दशा के परिणाम स्वरूप समाधि मरण में व्यक्ति देह छोड़ता है तब नज़दीक के रिश्तेदारों को कोई भारी दुःख नहीं होता।

तब यह प्रश्न उठता है कि ऐसा कैसे मुमकिन हो सकता है कि नज़दीक के प्रिय स्वजन की मृत्यु के वक़्त आस-पास के किसी भी को भी दुःख नहीं होता! तो चलिए इसे हम एक उदाहरण के ज़रिए समझते हैं। मान लीजिए कि रस्से का एक सिरा हमने पकड़ा है और दूसरा सिरा सामने दूसरे व्यक्ति ने पकड़ा है। अब अगर सामने का व्यक्ति दूर जाएगा तो रस्सा खिंचेगा। तो हमने जो हाथ में रस्सा पकड़ा है वहाँ हमें भी दर्द होगा और सामने वाले को भी दर्द होगा। इसी तरह हम भी नज़दीक के व्यक्तियों के साथ राग-द्वेष, मोह और ममता के रस्से से बँधे हुए हैं। इसलिए जब व्यक्ति की मृत्यु होती है तब जाने वाले व्यक्ति को तो दुःख होता ही है, पर साथ ही साथ घर के दूसरे व्यक्तियों को भी बहुत दुःख होता है।

लेकिन अगर राग-द्वेष और ममता के रस्से छूट गए हों, जाने वाले व्यक्ति ने घर के सभी व्यक्तियों के साथ के राग-द्वेष के हिसाब पूरे कर लिए हों तो जाने वाले को समाधि रहती है। परिणाम स्वरूप नज़दीकी परिवारजनों को भी दुःख नहीं होता। घर में दुःख तो दूर, उल्टा आनंद का अनुभव होता है! परम पूज्य दादा भगवान कहते हैं कि, समाधि मरण अर्थात् आत्मा के सिवाय और कुछ याद ही नहीं हो। निज स्वरूप (आत्मा) के अलावा दूसरी जगह चित्त ही नहीं हो, मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार, कुछ भी डाँवाडोल हो नहीं! निरंतर समाधि! देह को उपाधि (परेशानी, दुःख) हो, फिर भी उपाधि छुए नहीं!”

समाधि मरण मुमकिन है आत्मज्ञान से

ऐसा समाधि मरण कैसे मुमकिन हो पाता है? आत्मा के ज्ञान से। जिस ज्ञान के कारण कैसी भी मुश्किल में खुद को दुःख छूता तक नहीं। सच्चा आत्मज्ञान वह है जिससे परिणाम प्राप्त हो। शब्दों में “मैं देह से जुदा हूँ” ऐसा शास्त्रों में लिखा हुआ है। लेकिन वह पढ़ने से आत्मज्ञान प्रकट नहीं होता। जिस तरह कागज़ के दीये से अपने दीये को स्पर्श कराने से दीया प्रकट नहीं होता, लेकिन अगर प्रत्यक्ष दीये की ज्योत से हम अपने दीये की बाती को स्पर्श कराएँ तो दीया प्रकट हो जाता है। वह आत्मज्ञान प्रत्यक्ष आत्मज्ञानी के पास से ही मिल सकता है। जिसमें ‘मैं’ और ‘मेरा’ दोनों जुदा ही हैं ऐसा यथार्थ अनुभव हो वह सच्चा ज्ञान कहलाता है। आत्मज्ञान प्राप्त होने के बाद मृत्यु के वक़्त देह जुदा है, मैं आत्मा जुदा हूँ ऐसी संपूर्ण जागृति के साथ देह छूटता है।

जैसे हम कहतें हैं कि “यह घड़ी मेरी है” तो इससे हम और घड़ी दोनों अलग हैं ऐसा साबित हुआ। ठीक वैसे ही “यह देह मेरा है” कहें तो मैं और देह दोनों अलग हैं ऐसा कहा जाएगा। ‘मेरा घर’, ‘मेरी पत्नी’, ‘मेरे बच्चे’ यह सब ‘मेरा’ है तो ‘मैं’ कौन हूँ? ‘मैं’ की पहचान वह आत्मसाक्षात्कार

आत्मसाक्षात्कार से अंदर ऐसी दृष्टि फिट हो जाती है जिससे संसार में रहने के बावजूद संसार के दुःख हमें स्पर्श नहीं कर सकते। आत्मा स्वयं परमानंद स्वरूप है, अनंत सुख का धाम है, शाश्वत है। आत्मा न कभी जन्म लेता है, न कभी मरता है। उसे कोई पीड़ा या दुःख स्पर्श नहीं कर सकते। ऐसे खुद के स्वरूप का भान हो जाए, तो दूसरों में भी उसी स्वरूप के दर्शन होते हैं। इसीलिए जिस जिस व्यक्ति या चीज़ के साथ हमने ‘मेरा’, ’मेरा’ कहकर ममता के बंधन लपेटे हों वह सभी बंधन आत्मा के ज्ञान से खुल जाते हैं। और इसीलिए खुद को या इर्द-गिर्द किसी भी व्यक्ति को दुःख छूता नहीं। कितने ही लोगों को ऐसे समाधि मृत्यु के अनुभव हुए हैं। जिसमें किसी के इकलौते जवान बेटे की आकस्मिक मृत्यु हो गई हो या फिर किसी कैंसर के मरीज़ की असहनीय पीड़ा के बीच मृत्यु हो गई हो, सभी में व्यक्ति को खुद को और परिवारजनों को दुःख छुआ नहीं है।

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