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टकराव को हल करने में ‘सही इरादे’ का क्या महत्व है?

प्रश्नकर्ता : सामनेवाले का समाधान करने का हम प्रयत्न करें, पर उसमें परिणाम अलग ही आनेवाला है, ऐसा हमें पता हो तो उसका क्या करना चाहिए?

दादाश्री : परिणाम कुछ भी आए, हमें तो 'सामनेवाले का समाधान करना है' इतना निश्चित रखना है। 'समभाव से निकाल' करने का निश्चित करो, फिर निकाल हो या न हो वह पहले से देखना नहीं है। और निकाल होगा। आज नहीं तो दूसरे दिन होगा, तीसरे दिन होगा, गाढ़ा हो तो दो वर्ष में, तीन वर्ष में या चार वर्ष में होगा। वाइफ के ऋणानुबंध बहुत गाढ़ होते हैं, बच्चों के गाढ़ होते हैं, माँ-बाप के गाढ़ होते हैं, वहाँ ज़रा ज़्यादा समय लगता है। ये सब अपने साथ के साथ ही होते हैं, वहाँ निकाल धीरे-धीरे होता है। पर हमने निश्चित किया है कि जब हो तब 'हमें समभाव से निकाल करना है', इसलिए एक दिन उसका निकाल होकर रहेगा, उसका अंत आएगा। जहाँ गाढ़ ऋणानुबंध हों, वहाँ बहुत जागृति रखनी पड़ती है, इतना छोटा-सा साँप हो पर सावधान, और सावधान ही रहना पड़ता है। और यदि बेखबर रहें, अजाग्रत रहें तो समाधान होता नहीं। सामनेवाला व्यक्ति बोल जाए और हम भी बोल जाएँ, बोल गए उसमें हर्ज नहीं है परन्तु बोल जाने के पीछे हमें 'समभावे निकाल' करना है ऐसा निश्चय रहा हुआ है इसलिए द्वेष रहता नहीं है। बोला जाना वह पुद्गल का है और द्वेष रहना, उसके पीछे खुद का आधार रहा हुआ है। इसलिए हमें तो 'समभावे निकाल' करना है, ऐसे निश्चित करके काम करते जाओ, हिसाब चुकता हो ही जाएँगे। और आज माँगनेवाले को नहीं दिया जा सका तो कल दिया जाएगा, होली पर दिया जाएगा, नहीं तो दिवाली पर दिया जाएगा। पर माँगनेवाला ले ही जाएगा।

इस जगत् को चुकता करने के बाद अरथी में जाते हैं। इस भव के तो चुकता कर डालता है ही चाहे जिस रास्ते, फिर नये बाँधे वे अलग। अब हम नये बाँधते नहीं है और पुराने इस भव में चुकता हो ही जानेवाले हैं। सारा हिसाब चुकता हो गया इसलिए भाई चले अरथी लेकर! जहाँ किसी भी खाते में बाकी रहा हो, वहाँ थोड़े दिन अधिक रहना पड़ेगा। इस भव का इस देह के आधार पर सब चुकता ही हो जाता है। फिर यहाँ जितनी गाँठें डाली हों, वे साथ में ले जाता है और फिर वापिस नया हिसाब शुरू होता है।

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