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पुरुष और स्त्री के बीच होनेवाले झगड़ों का अंतिम समाधान क्या है?

दादाश्री : यह रोटी और सब्ज़ी के लिए शादी करी। पति समझे कि मैं कमाकर लाऊँ, पर यह खाना कौन बनाकर देगा? पत्नी समझती है कि मैं रोटी बनाती तो हूँ पर कमाकर कौन देगा? ऐसा करके दोनों ने शादी की, और सहकारी मंडली बनाई। फिर बच्चे भी होंगे ही। एक लौकी का बीज बोया, फिर लौकी लगती रहती है कि नहीं लगती रहती? बेल के पत्ते-पत्ते पर लौकी लगती है। ऐसा ये मनुष्य भी लौकी की तरह उगते रहते हैं। लौकी की बेल ऐसा नहीं बोलती कि ये मेरी लौकियाँ हैं।

ये मनुष्य अकेले ही बोलते हैं कि ये मेरी लौकियाँ हैं। यह बुद्धि का दुरुपयोग किया, बुद्धि पर निर्भर रही इसलिए मनुष्य जाति निराश्रित कहलाई। दूसरे कोई जीव बुद्धि पर निर्भर नहीं हैं। इसलिए वे सब आश्रित कहलाते हैं। आश्रित को दुःख नहीं होता। इन्हें ही सारा दुःख होता है।

ये विकल्पी सुखों के लिए भटका करते हैं, पर पत्नी सामना करे तब उस सुख का पता चलता है कि यह संसार भोगने जैसा नहीं है। पर यह तो तुरन्त ही मूर्च्छित हो जाता है। मोह का इतना सारा मार खाता है, उसका भान भी रहता नहीं है।

बीवी रूठी हुई हो तब तक 'या अल्लाह परवरदिगार' करता है और बीवी बोलने आई तब फिर मियाँभाई तैयार! फिर अल्लाह और बाकी सब एक तरफ रह जाता है! कितनी उलझन! ऐसे कोई दुःख मिट जानेवाले हैं? घड़ीभर तू अल्लाह के पास जाए तो क्या दुःख मिट जाएगा? जितना समय वहाँ रहेगा उतना समय अंदर सुलगता बंद हो जाएगा ज़रा, पर फिर वापिस कायम की सिगड़ी सुलगा ही करेगी। निरंतर प्रकट अग्नि कहलाती है, घड़ीभर भी सुख नहीं होता! जब तक शुद्धात्मा स्वरूप प्राप्त नहीं होता, खुद की दृष्टि में 'मैं शुद्ध स्वरूप हूँ', ऐसा भान नहीं होता तब तक सिगड़ी सुलगा ही करेगी। शादी में भी बेटी का ब्याह करवा रहे हों तब भी अंदर सुलग रहा होता है! निरंतर संताप रहा करता है। संसार यानी क्या? जंजाल। यह देह लिपटा है, वह भी जंजाल है! जंजाल को तो भला शौक होता होगा? उसका शौक होता है, वह भी आश्चर्य है न! मछली पकड़ने का जाल अलग और यह जाल अलग! मछली के जाल में से काट-कूटकर निकला भी जा सकता है, पर इसमें से निकला ही नहीं जा सकता। ठेठ अरथी निकलती है तब निकला जाता है।

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