मनुष्य होकर प्राप्त संसार में द़खल नहीं करे, तो संसार इतना सरल और सीधा चलता रहेगा। पर यह प्राप्त संसार में द़खल ही करता रहता है। जागा तब से ही द़खल।
और पत्नी भी जागे तब से द़खल ही करती रहती है, कि इस बच्चे को ज़रा झूला भी नहीं झुलाते। देखो यह कब से रो रहा है! तब वापिस पति कहेगा, 'तेरे पेट में था तब तक क्या मैं उसे झूला डालने आता था! तेरे पेट में से बाहर निकला तो तुझे रखना है', कहेगा। वह सीधी न रहे तो क्या करे फिर?
प्रश्नकर्ता : द़खल नहीं करो कहा है आपने, तो वह सब जैसे हो वैसे पड़े रहने देना चाहिए? घर में बहुत लोग हों, तो भी?
दादाश्री : पड़े नहीं रखना चाहिए और द़खल भी नहीं करनी चाहिए।
प्रश्नकर्ता : ऐसा किस तरह से होगा?
दादाश्री : भला द़खल तो होती होगी? द़खल तो अहंकार का पागलपन कहलाता है!
प्रश्नकर्ता : कोई कार्य हो तो कह सकते हैं घर में कि इतना करना, इस तरह?
दादाश्री : पर कहने-कहने में फर्क होता है।
प्रश्नकर्ता : बिना इमोशन के कहना है। इमोशनल नहीं हों और कहें ऐसा?
दादाश्री : ऐसे वाणी इतनी मीठी बोलते हैं कि कहने से पहले ही वह समझ जाए।
प्रश्नकर्ता : यह कठोर वाणी-कर्कश वाणी हो, उसे क्या करें?
दादाश्री : कर्कश वाणी, वही द़खल होती है! कर्कश वाणी हो तो उसमें इतने शब्द जोड़ने पड़ेंगे कि 'मैं विनती करता हूँ, इतना करना।' 'मैं विनती...' इतना शब्द जोड़कर कहो।
Book Name: वाणी, व्यवहार में.. (Page #47 Paragragh #2 to #10 & Page #48 Paragragh #1, #2, #3)
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