प्रश्नकर्ता : अब सदगुरु किसे कहें?
दादाश्री : ऐसा है न, सदगुरु किसे कहें, वह बहुत बड़ी मुश्किल है। सदगुरु किसे कहा जाता है, शास्त्रीय भाषा में? कि सत् अर्थात् आत्मा, वह जिसे प्राप्त हुआ है वैसे गुरु, वे सदगुरु !
अर्थात् सदगुरु, वे तो आत्मज्ञानी ही सदगुरु कहलाते हैं, आत्मा का अनुभव हो चुका होता है उन्हें। सभी गुरुओं को आत्मज्ञान नहीं होता। इसलिए जो निरंतर सत् में ही रहते हैं, अविनाशी तत्व में ही रहते हैं, वे सदगुरु! इसलिए सदगुरु तो ज्ञानीपुरुष होते हैं।
प्रश्नकर्ता : श्रीमद् राजचंद्र कह गए हैं कि प्रत्यक्ष सदगुरु के बिना मोक्ष होता ही नहीं।
दादाश्री : हाँ, उनके बिना मोक्ष होता ही नहीं है। सदगुरु कैसे होने चाहिए? कषाय रहित होने चाहिए, जिनमें कषाय ही नहीं हो। हम मारें, गालियाँ दें तो भी कषाय नहीं करें। सिर्फ कषाय रहित ही नहीं, परंत बुद्धि खत्म हो जानी चाहिए। बुद्धि नहीं होनी चाहिए। इन बुद्धिशालियों के पास हम मोक्ष लेने जाएँ, तो उनका ही मोक्ष नहीं हुआ है तो आपका कैसे होगा? यानी धौल मारें तो भी असर नहीं, गालियाँ दें तो भी असर नहीं, मार मारें तो भी असर नहीं, जेल में डाल दें तो भी असर नहीं। द्वंद्व से परे होते हैं। द्वंद्व समझे आप? नफा-नुकसान, सुख-दुःख, दया-निर्दयता। एक हो वहाँ दूसरा होता ही है, उसका नाम द्वंद्व! इसलिए जो गुरु द्वंद्वातीत हों, उन्हें सदगुरु कहा जाता है।
इस काल में सदगुरु होते नहीं। किसी जगह पर ही होते हैं। बा़की सदगुरु होते ही नहीं न! इसलिए ये लोग गुरु को ही उल्टे प्रकार से सदगुरु मान बैठे हैं। इसलिए यह सब फँसे हुए हैं! नहीं तो सदगुरु मिलने के बाद चिंता होती होगी?
प्रश्नकर्ता : हरकोई अपने गुरु को ही सदगुरु मान बैठा है, वह क्या है?
दादाश्री : अपने हिन्दुस्तान में सभी धर्मोंवाले अपने-अपने गुरु को सदगुरु ही कहते हैं। कोई भी सिर्फ गुरु नहीं कहता। लेकिन उसका अर्थ लौकिक भाषा में है। संसार में जो बहुत ऊँचे चारित्रवाले गुरु होते हैं, उन्हें अपने लोग सदगुरु कहते हैं। लेकिन वास्तव में वे सदगुरु नहीं कहलाते। उनमें प्राकृतिक गुण बहुत ऊँचे होते हैं, खाने-पीने में समता रहती है, व्यवहार में समता होती है, व्यवहार में चारित्रगुण बहुत ऊँचे होते हैं, लेकिन उन्हें आत्मा प्राप्त नहीं हुआ होता। वे सदगुरु नहीं कहलाते।
ऐसा है न, गुरु दो प्रकार के हैं। एक गाईड रूपी गुरु होते हैं। गाईड अर्थात् उन्हें हमें फॉलो करना होता है। वे आगे-आगे चलते हैं मोनिटर की तरह। उन्हें गुरु कहा जाता है। मोनिटर मतलब आप समझे? जिन्हें हम फॉलो करते रहें। तिराहा आया हो तो वे डिसाइड करते हैं कि भाई, इस रास्ते नहीं, उस रास्ते चलो। तब हम उस रास्ते चलते हैं। उन्हें फॉलो करना होता है, लेकिन वे अपने आगे ही होते हैं। कहीं पर नहीं होते हैं और दूसरे, सदगुरु! सदगुरु मतलब हमें इस जगत् के सर्व दुःखों से मुक्ति दिलवाते हैं। क्योंकि वे खुद मुक्त हो चुके होते हैं। वे हमें उनके फॉलोअर्स की तरह नहीं रखते, और गुरु को तो फॉलो करते रहना पड़ता है हमें। उनके विश्वास पर चलना होता है। वहाँ अपनी अक्कलमंदी का उपयोग नहीं करें, और गुरु के प्रति सिन्सियर रहें। जितने सिन्सियर हों, उतनी शांति रहती है।
गुरु तो हम यह स्कूल में पढ़ने जाते हैं न, तब से ही गुरु की शुरूआत हो जाती है, तो ठेठ अध्यात्म के दरवाज़े तक गुरु ले जाते हैं। लेकिन अध्यात्म में प्रविष्ट नहीं होने देते। क्योंकि गुरु ही अध्यात्म ढूँढ रहे होते हैं। अध्यात्म अर्थात् क्या? आत्मा के सम्मुख होना वह। सदगुरु तो हमें आत्मा के सम्मुख कर देते हैं।
अर्थात् यह है गुरु और सदगुरु में फर्क!
Book Name: गुरु-शिष्य (Page #36 Paragraph #2 to #6; Page #37 & Page #38 Paragraph #1,#2,#3)
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