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अक्रमविज्ञान की वारिस

ऐसे हुई तैयार अक्रमविज्ञान की वारिस

परम पूज्य दादाश्री ने पूज्य नीरु माँ की जगत् कल्याण की शुद्ध भावना को समझा और उन्होंने उनकी छोटी से छोटी कमज़ोरी और कमियाँ दूर करके जगत् कल्याण के लिए तैयार करना शुरू किया, उन्होंने इसे हृदय से स्वीकार किया और परम विनय और अभेदता से खुद को इसके लिए पूरी तरह से समर्पित कर दिया क्योंकि वे दिल में यह अच्छी तरह से जानती थीं कि ज्ञानीपुरुष जो भी करेंगे, वह उनके मोक्ष के लिए हितकारी होगा। यह उनकी खासियत थी कि परम पूज्य दादाजी ने उनकी जो-जो गलतियाँ उन्हें बताई, वे गलतियाँ पूज्य नीरु माँ से दोबारा कभी भी नहीं हुई। यह उनका एक असाधारण गुण था कि आत्मोन्नति के लिए दादाश्री द्वारा उन्हें जो भी निर्देश या मार्गदर्शन दिया जाता था, उन पर वे तुरन्त अमल करती थीं! और दादाश्री की हर एक उस परीक्षा में वे खरी उतरीं जो कि भविष्य में अक्रमविज्ञान का वारिसदार बनने की तैयारी के लिए ज़रूरी थी।

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उनकी इस प्रगति से संतुष्ट होकर सन् १९८७ में अपने अंतिम दिनों में परम पूज्य दादाश्री ने कहा, ‘नीरुबहन हम आपसे बहुत खुश हैं। ये नीरुबहन जगत् कल्याण का एक बहुत बड़ा निमित्त हैं। आपको पूरी जगत् की माता बनना है। जब भी नीरुबहन चाहेंगी दादाश्री उनके अंदर से बोलेंगेइस प्रकार दादाश्री ने पूज्य नीरु माँ को अपनी अलौकिक आध्यात्मिक सिद्धियाँ प्रदान की। ताकि वे भी दूसरों को आत्मज्ञान की प्राप्ति करवा सकें और दादाश्री का यह कार्य जारी रख सकें। और पूज्य नीरु माँ ने भी उन्हें वचन दिया कि वे अपनी अंतिम साँसों तक दादाजी का जगत् कल्याण का कार्य करती रहेंगी।

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