युवावस्था से ही परम पूज्य दादा भगवान कंस्ट्रक्शन के व्यवसाय में कॉन्ट्रैक्टर थे। संसारी होते हुए भी, आसपास के लोग उन्हें सुखी और दैवी गुण वाले मानते थे। उन्हें लोगों के प्रति करुणा और प्रेम था। उनका धंधे बहुत अच्छा चल रहा था और उन्होंने कभी झूठ की लक्ष्मी घर में आने नहीं दी। यदि संयोगाधीन आ गई हो तो वह धंधे में ही रहने देते, घर में आने नहीं देते थे।
परम पूज्य दादा भगवान ने तय किया था कि धंधे में जो मुनाफा या नुकसान हो, उसे धंधे में ही रखा जाए। वे घर पर उतने ही पैसे लाते थे, जितने वे नौकरी से कमा सकते हों! धंधे में कमाए लाखों रुपये उन्होंने तभी खर्च किए, जब धंधे में कोई मुश्किल आई हो।
उन्होंने व्यापार को कर्म के खेल के रूप में ही देखा था: मुनाफा पुण्य का परिणाम है और नुकसान कर्म का परिणाम है। इसलिए वे मानते थे कि यदि कोई अनीति से धंधा करता है, तो भी उससे मुनाफा एक पैसा भी नहीं बढ़ सकता। इन सिद्धांतों के साथ धंधा करते हुए, उन्होंने न तो कभी लक्ष्मी की भीड़ देखी और न ही भराव।
ज्ञान प्राप्ति से पहले, परम पूज्य दादाश्री को एक बार धंधे में नुकसान हुआ था। बाद में उन्होंने उस स्थिति का वर्णन करते हुए कहा कि नुकसान के कारण उन्हें बहुत चिंता हुई और उन्हें पूरी रात नींद नहीं आई। फिर उन्हें विचार आया और उन्होंने खुद से पूछा कि क्या इस नुकसान के कारण कोई और चिंता कर रहा है? तब उन्हें समझ में आया कि उनके भागीदार तो चिंता नहीं भी कर रहे हों, और न उनके परिवार को तथा न ही दादाश्री के परिवार को इस नुकसान की कोई खबर थी। फिर उन्होंने सोचा कि जब इस पूरी स्थिति में कोई और चिंता नहीं कर रहा है, तो मैं अकेला ही क्यों सब कुछ अपने सिर पर ले रहा हूँ? उन्हें अपनी चिंता निरर्थक लगी। ऐसी प्रैक्टिकल समझ से इसके बाद दादाश्री को कभी भी व्यवसाय में चिंता नहीं हुई।
परम पूज्य दादाश्री ने कभी भी अत्यंत आवश्यक खर्चों के लिए भी किसी से पैसे नहीं लिए थे। आत्मज्ञान के बाद, उन्होंने सत्संग के लिए गाड़ी, ट्रेन या प्लेन से अपने ही पैसों से बहुत यात्रा की। कई महात्मा उन्हें पैसे और सोना देते थे, लेकिन वे इसे कभी स्वीकार नहीं करते थे। जिन लोगों में देने की बहुत इच्छा होती थी, उन्हें परम पूज्य दादाश्री दूसरों के हित के लिए, मंदिरों को या भूखों को देने के लिए कहते थे। यदि देने वाला अपनी इच्छा से दे रहा हो, वह दे सकता हो और परिवार की सहमति हो, तभी वे देनेवालों को ऐसा कहते थे।
परम पूज्य दादाश्री ने भागीदार के साथ एक भी मतभेद के बिना पैंतालीस साल भागीदारी की। वे मानते थे कि धंधे में अंदरूनी मुश्किलें तो आती ही रहेंगी, लेकिन मतभेद होने देना वह गलत दृष्टिकोण है। भागीदार धंधे में पूरा वक्त साथ ही रहे, फिर भी उन्हें दादाश्री के प्रति नेगेटिव नहीं हुआ। उन्हें दादाश्री के प्रति इतना पूज्यभाव था कि उन्होंने धंधे की ज़िम्मेदारी संभालकर दादाश्री को सत्संग के लिए मुक्त कर दिया था। वे अपने बेटों से कहते थे कि दादाश्री की उपस्थिति वही श्रीमताई है, उन्हें कभी भी पैसों की कमी नहीं आई थी।
परम पूज्य दादाश्री ने, अपने जीवन के अनुभवों से 'काउंटर पुली' का सिद्धांत अपनाया था, जो लोगों के साथ व्यवहार में उपयोगी है। एक इंजन का उदाहरण देते हुए उन्होंने समझाया कि यदि इंजन और पंप सीधे जुड़े हों और इंजन ३००० आरपीएम (रिवोल्यूशन पर मिनट) की गति से चलता हो, तो वह १५०० आरपीएम की गति से चलने वाले पंप को तोड़ डालेगा। ऐसे में, पंप को १५०० आरपीएम मिल सके, इसके लिए दोनों के बीच एक काउंटर पुली लगानी ज़रूरी है। इसी प्रकार, जिस व्यक्ति की बुद्धिमत्ता और ग्रहण शक्ति बहुत ऊंची हो, उसे कम रिवोल्यूशन वाले व्यक्ति के साथ व्यवहार करते समय काउंटर पुली लगानी ज़रूरी है। इस एडजस्टमेन्ट से, हम दूसरों को दोषित न देखकर अकूलाना टाल सकते हैं और व्यवहार को क्लेश रहित बना सकते हैं।
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