६. ‘हे दादा भगवान ! मुझे, किसी भी देहधारी जीवात्मा के प्रति स्त्री, पुरुष या नपुंसक, कोई भी लिंगधारी हो, तो उसके संबंध में किंचित्मात्र भी विषय-विकार संबंधी दोष, इच्छाएँ, चेष्टाएँ या विचार संबंधी दोष न किए जाएँ, न करवाए जाएँ या कर्ता के प्रति अनुमोदना न की जाए, ऐसी परम शक्ति दीजिए। मुझे, निरंतर निर्विकार रहने की परम शक्ति दीजिए।’
दादाश्री: आपकी दृष्टि बिगड़ते ही आप तुरंत अंदर ‘चंदूभाई’ (चंदूभाई की जगह पाठक स्वयं को समझे) से कहना, ‘ऐसा नहीं करना चाहिए। ऐसा हमें शोभा नहीं देता। हम खानदानी क्वॉलिटी के (गुणवाले) हैं। जैसी हमारी बहन होती है, वैसे वह भी दूसरे की बहन है। हमारी बहन पर किसी की कुदृष्टि हो तो हमें कितना बुरा लगे! वैसे दूसरों को भी दु:ख होगा या नहीं? इसलिए हमें ऐसा शोभा नहीं देता। अर्थात् दृष्टि बिगड़़े तो पछतावा करना चाहिए।
प्रश्नकर्ता: चेष्टाएँ, इसका क्या अर्थ है?
दादाश्री: देह से होनेवाली सारी क्रियाएँ, जिसकी तस्वीर खींची जा सकती हैं वे सारी चेष्टाएँ कहलाती हैं। आप मज़ाक उड़ाते हों, वह चेष्टा है। ऐसे हँसते हों वह भी चेष्टा कहलाती है।
प्रश्नकर्ता: अर्थात् किसी की हँसी उड़ाना, किसी का मज़ाक उड़ाना वे चेष्टाएँ कहलाती हैं?
दादाश्री: हाँ, ऐसी बहुत प्रकार की चेष्टाएँ हैं।
प्रश्नकर्ता: तो यह विषय-विकार संबंधी चेष्टाएँ किस तरह से हैं?
दादाश्री: विषय-विकार के बारे में भी देह ऐसी जो-जो क्रियाएँ करे, जिसकी तस्वीर ली जा सके, वे सारी चेष्टाएँ कहलाती हैं। जो क्रिया देह से नहीं हो, उसे चेष्टा नहीं कहते। कभी-कभी इच्छाएँ होती हैं, मन में विचार आते हैं, लेकिन वे चेष्टाएँ नहीं होती हैं। विचार संबंधी दोष मन के दोष हैं।
‘मुझे निरंतर निर्विकार रहने की शक्ति दीजिए।’ इतना आप ‘दादाजी’ से माँगना। ‘दादाजी’ तो दानेश्वर हैं।
Book Name: भावना से सुधरे जन्मोंजन्म (Page #17 Paragraph #3 to #6 Page #18 Paragraph #1 to #6)
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