प्रश्नकर्ता : मस्का लगाना, वह सत्य है? झूठी हाँ में हाँ मिलाना वह?
दादाश्री : वह सत्य नहीं कहलाता। मस्का लगाने जैसी वस्तु ही नहीं है। यह तो खुद की खोज है, खुद की भूल के कारण दूसरे को मस्का मारता है यह।
प्रश्नकर्ता : किसीके साथ मिठास से बोलें तो उसमें फायदा है?
दादाश्री : हाँ, उसे सुख लगता है!
प्रश्नकर्ता : वह तो फिर पता चले तब तो बहुत दुःख हो जाता होगा। क्योंकि, कोई बहुत मीठे बोल होते हैं, और कोई सच्चे बोल होते हैं, तो हम ऐसा कहते हैं न कि यह मीठा बोलता है, पर इससे तो दूसरा व्यक्ति भले ही खराब बोलता है पर वह अच्छा व्यक्ति है।
दादाश्री : सच्चे बोल किसे कहा जाता है? एक भाई उसकी मदर के साथ सच बोला, एकदम सत्य बोला। और मदर से क्या कहता है? 'आप मेरे पिताजी की पत्नी हो' कहता है, वह सत्य नहीं है? तब मदर ने क्या कहा? तेरा मुँह फिर मत दिखाना, भाई। अब तू जा यहाँ से! मुझे तेरे बाप की पत्नी बोलता है।
इसलिए सत्य कैसा होना चाहिए? प्रिय लगे ऐसा होना चाहिए। सिर्फ प्रिय लगे वैसा हो तो भी नहीं चलेगा। वह हितकर होना चाहिए, उतने से ही नहीं चलेगा। मैं सत्य, प्रिय और हितकारी ही बोलता हूँ, तो भी मैं अधिक बोलता रहूँ न, तो आप कहो कि, 'अब चाचा बंद हो जाओ न। अब मुझे भोजन के लिए उठने दो न।' इसलिए वह मित चाहिए, सही मात्रा में चाहिए। यह कोई रेडियो नहीं है कि बोलते रहे, क्या? मतलब सत्य-प्रिय-हितकर और मित, चार गुणाकार हो तो ही सत्य कहलाता है। नहीं तो सिर्फ नग्न सत्य बोलें, तो वह असत्य कहलाता है।
वाणी कैसी होनी चाहिए? हित-मित-प्रिय और सत्य, इन चार गुणाकारोंवाली होनी चाहिए। और दूसरी सब असत्य हैं। व्यवहार वाणी में यह नियम लागू होता है। इसमें तो ज्ञानी का ही काम है। चारों ही गुणाकारोंवाली वाणी सिर्फ 'ज्ञानी पुरुष' के पास ही होती है, सामनेवाले के हित के लिए ही होती है, थोड़ी भी खुद के हित के लिए वाणी नहीं होती है। 'ज्ञानी' को'पोतापणुं'(मैं हूँ और मेरा है, ऐसा आरोपण, मेरापन) होता ही नहीं है, यदि 'पोतापणुं' हो तो वह ज्ञानी ही नहीं होते है।
सत्य किसे कहा जाता है? किसी जीव को वाणी से दुःख नहीं हो, वर्तन से दुःख नहीं हो और मन से भी उसके लिए खराब विचार नहीं किया जाए। वह सबसे बड़ा सत्य है। सबसे बड़ा सिद्धांत है। यह रियल सत्य नहीं है। यह अंतिम व्यवहार सत्य है।
Book Name: वाणी, व्यवहार में... (Page #34 Paragragh #2 to #7 & Page #35 Paragragh #1, #2, #3)
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