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वाणी को कैसे सुधारें?

प्रश्नकर्ता : इस भव की समझ किस प्रकार से वाणी सुधारने में हेल्प करती है। वह उदाहरण देकर ज़रा समझाइए।

दादाश्री : अभी तुझे एक गाली दे तो भीतर असर हो जाता है। थोड़ा-बहुत मन ही मन में बोलता भी है कि 'तुम नालायक हो।' पर उसमें तू नहीं है, जुदा हो गया इसलिए तू इसमें नहीं है। आत्मा जुदा हो गया है, इसलिए वह एकाकार नहीं होता। यानी कोई मनुष्य बीमार हो और बोले, वैसा कर देता है।

प्रश्नकर्ता : अब जिसका अहंकार नहीं गया, आत्मा जुदा नहीं हुआ, उसे उसकी समझ हेल्प करती है?

दादाश्री : हाँ, पर वह जैसा है वैसा बोल दे और बाद में पछतावा करे तब।

वाणी सुधारनी हो तो लोगों को पसंद नहीं हो वैसी वाणी बंद कर दो। और फिर किसीकी भूल नहीं निकाले, टकराव नहीं करे, तो भी वाणी सुधर जाती है।

प्रश्नकर्ता : अब वाणी में सुधार लाना हो तो किस तरह करना चाहिए?

दादाश्री : वाणी अपने आपसे सुधारी नहीं जा सकती, वह टेपरिकॉर्ड हो चुकी है।

प्रश्नकर्ता : हाँ, इसलिए ही न! अर्थात् व्यस्थित हो चुका है।

दादाश्री : व्यवस्थित हो चुका है, वह अब यहाँ पर 'ज्ञानी पुरुष' की कृपा उतरे तो परिवर्तन हो जाता है। कृपा उतरनी मुश्किल है।

ज्ञानी की आज्ञा से सब सुधर सकता है। क्योंकि भव में दाखिल होने के लिए वह बाड़ के समान है। भव के अंदर दाखिल होने नहीं देगी।

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