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आध्यात्मिक व्यक्ति कैसा होता है?

आध्यात्मिक व्यक्ति कौन है? आध्यात्मिक व्यक्ति कैसा होता है? वह ऐसा व्यक्ति होता है जिसमें आत्मा के अनुभव को प्राप्त करने की तीव्र इच्छा होती है। इस व्यक्ति को संसारी चीज़ों के बजाय सच्चे सुख की कामना होती है। प्रकृति के टॉपमोस्ट गुण मोक्षमार्ग में राहखर्च के लिए मिलते हैं। अत्यंत नम्रता, अत्यंत सरलता, सहज क्षमा, अहंकार का टेढ़ापन तो नाम मात्र को भी नहीं हो, तो ऐसे गुण प्रगति का प्रमाण कहे जा सकते हैं।

तो आइए, विस्तार से समझें कि आध्यात्मिक व्यक्ति किसे कहते हैं या आध्यात्मिक होने का क्या मतलब है:

परम पूज्य दादा भगवान समझाते हैं, "तीन वस्तुओं की मोक्षमार्ग में ज़रूरत है:

  • आत्मा प्राप्त करने की तीव्र इच्छा।
  • ‘ज्ञानी पुरुष’ प्राप्त करने की तीव्र इच्छा।
  • ‘ज्ञानी पुरुष’ नहीं मिलें, तो ‘ज्ञानी पुरुष’ प्राप्त हों, ऐसी भावना करना।“

आध्यात्मिक व्यक्ति सिन्सियर और मॉरल होता है।

सिन्सियरिटी ही धर्म है। धर्म तो, अपने आपके प्रति और हर व्यक्ति के प्रति सिन्सियर रहना सिखाता है।

परम पूज्य दादा भगवान  कहते हैं, “यदि सिन्सियरिटी के लक्ष (जागृति) पर चला, इस रोड पर चला तो मॉरल बनना अर्थात् परमात्मा प्राप्त करने की तैयारी!”

आध्यात्मिक व्यक्ति कभी भी किसी को दुःख नहीं पहुँचाता।

दूसरों को दुःख नहीं पहुँचाने का अर्थ है अहिंसा का पालन करना। जो लोग आध्यात्मिक हैं उनका इस तरफदारी में दृढ़ निश्चय होता है! परम पूज्य दादा भगवान समझाते हैं...

प्रश्नकर्ता: ‘अहिंसा के मार्ग पर धार्मिक-आध्यात्मिक उन्नति’ इस विषय पर समझाइए।

दादाश्री: अहिंसा, वही धर्म है और अहिंसा वही अध्यात्म की उन्नति है। पर अहिंसा मतलब ‘मन-वचन-काया से किसी भी जीव को किंचित्‌मात्र दुःख न हो’ उस जानपने में रहना चाहिए, श्रद्धा में रहना चाहिए, तब वह हो सकता है।

प्रश्नकर्ता: ‘अहिंसा परमोधर्म’ - यह मंत्र जीवन में किस तरह काम आता है?

दादाश्री: वह तो सुबह पहले बाहर निकलते समय ‘मन-वचन-काया से किसी भी जीव को किंचित्‌मात्र दुःख न हो’ ऐसी पाँच बार भावना करके और फिर निकलना चाहिए। फिर किसी को दुःख हो गया हो, उसे याद रखकर उसका पश्चाताप करना चाहिए।

प्रश्नकर्ता: किसी को भी दुःख नहीं दें, वैसा जीवन इस काल में किस तरह जीया जा सकता है?

दादाश्री: वैसा आपको भाव ही रखना है और वैसा जतन करना चाहिए। जतन नहीं हो सके उसका पश्चाताप करना।

एक आध्यात्मिक व्यक्ति पोज़िटिव रस्ते पर प्रगतिशील होता है।

परम पूज्य दादा भगवान बताते हैं,

“किसीके लिए खराब अभिप्राय बैठ गया हो, तब हमें अच्छा बैठाना चाहिए कि बहुत अच्छा है। जो खराब लगता हो, उसे अच्छा कहा कि बदल जाता है। पिछले अभिप्रायों के कारण आज वह खराब दिखता है। कोई खराब होता ही नहीं है। खुद के मन को ही कह देना चाहिए। अभिप्राय मन ने बनाए हुए हैं। मन के पास सिलक (जमापूँजी) है। किसी भी रास्ते मन को बाँधना चाहिए। नहीं तो मन बेलगाम हो जाता है, परेशान करता है।

व्यक्ति को हमेशा पॉज़िटिव बोलना चाहिए, पॉज़िटिव सोचना चाहिए, पॉज़िटिव बनना चाहिए और पॉज़िटिव रहना चाहिए; अगर कभी नेगेटिव उठे, तो जिस व्यक्ति या परिस्थिति की वजह से नेगेटिविटी हुई हो उसके लिए प्रार्थना करके नेगेटिव को तुरंत ही पॉज़िटिव में बदल देना चाहिए। ज्ञानी के पास पॉज़िटिव में रह सकें इसलिए शक्तियाँ माँगकर उससे नेगेटिव को दूर करना चाहिए।

आध्यात्मिक व्यक्ति कहीं भी एडजस्ट होने के लिए हमेशा तैयार रहता है।

आध्यात्मिक जागृति की पराकाष्ठा पर पहुँचा हुआ कभी भी मतभेद में नहीं पड़ता, ‘एवरीव्हेर एडजस्टेबल’ होता है।

ऐसा व्यक्ति हमेशा हर व्यक्ति या परिस्थिति में पॉज़िटिव ढूँढ लेता और इसलिए आसानी से एडजस्ट हो जाता है।

तो, हमें एडजस्ट कैसे होना है? एक उदाहरण लेते हैं। अगर हम कुछ ऐसा कह देते हैं कि जिससे किसी दूसरे व्यक्ति को दुःख पहुँचाता है, तो हमें तुरंत अपनी गलती का एहसास हो जाता है। उस वक़्त, यह आवश्यक है कि हम एडजस्टमेन्ट लें और कहें कि, "सॉरी, मुझसे गलत तरीके से बोला गया। यह मेरी गलती थी। मुझे माफ़ कर दीजिए।" इस तरह एडजस्टमेन्ट लिया जा सकता है।

आध्यात्मिक व्यक्ति क्रोध, मान, माया और लोभ के हथियार नीचे रखने के लिए तैयार रहता है।

क्रोध-मान-माया-लोभ ये सारी कमज़ोरियाँ हैं। आत्मा को दुःख दे, वे सभी शत्रु कहलाते हैं।

जगत क्रोध-मान-माया-लोभ के हथियार के कारण ही विरोधी होते हैं। जबकि, आध्यात्मिक व्यक्ति वे हथियार नीचे रखना चाहता है, क्योंकि जैसे जैसे क्रोध-मान-माया-लोभ मंद होते हैं, वैसे वैसे आध्यात्मिक समझ और बढ़ती जाती है।
परम पूज्य दादा भगवान  ने इस मार्ग को प्राप्त करने के लिए मार्गदर्शन दिया है। उनके मुताबिक, “क्रोध-मान-माया-लोभ हो उसमें हर्ज नहीं है, पर फिर उनका प्रतिक्रमण करें।”

आध्यात्मिक व्यक्ति जगत को निर्दोष देखना सीख रहा होता है।

अंतिम प्रकार की जागृति वह है जहाँ इस दुनिया में कोई दोषित ही न दिखे।

इस स्थिति तक कैसे पहुँचा जाए इसे परम पूज्य दादा भगवान एक सिमिलि के द्वारा समझाते हैं...

मान लीजिए, एक गाँव में एक सुनार रहता है। पाँच हजार की आबादीवाला गाँव है। आपके पास सोना है। वह सोना लेकर आप बेचने गए। वह सुनार आपके सोने को कसौटी पर घिसेगा, देखेगा। आपका सोना चांदी जेसा दिखता है। सोना कसौटी पर खरा नहीं उतरता फिर भी सुनार आपसे लड़ता नहीं कि सोना ऐसा बिगाडकर क्यों लाए हैं? क्योंकि, उसकी दृष्टि सोने में है। और यदि दूसरों के पास जाएँ तो वे डाँटेंगे कि, ‘ऐसा क्यों लेकर आए हैं?’ यानी जो जौहरी है वह डाँटता नहीं।

परम पूज्य दादा भगवान की जगत के प्रति दृष्टि सुनार के जैसी ही है। सुनार इस दृष्टि से, कैसा भी सोना रहा तब भी सोना ही देखेगा न? ठीक इसी तरह, सभी कषायों के बावजूद, ज्ञानी सिर्फ़ भीतर आत्मा को ही देखते हैं।

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