अध्यात्म और धर्म एक समान नहीं हैं। दोनों के बीच एक बड़ा अंतर है। तो, अध्यात्म और धर्म में क्या अंतर है? आइए देखते हैं।
हम अक्सर मानते हैं कि धर्म का अर्थ है दर्शन करना, प्रवचन सुनना और कर्मकांड करना। लेकिन ज़रा सोचिए - इतना सब करने के बाद भी अगर पूरे जीवन में हमारा एक भी दोष कम ना हो तो, क्या उसे धर्म कहा जा सकता है?
आज के जगत में केवल बाहरी क्रियाओं से ही लोगों को धार्मिक माना जाता है अर्थात अगर वे मंदिर जाते हैं, पूजा और तपस्या करते हैं, क्रियाकांड करते हैं, उपवास करते हैं और दान देते हैं या नहीं। लेकिन अंदर की परिणति अधिक महत्त्वपूर्ण है, अर्थात, आंतरिक ध्यान कैसा है, किस प्रकार का क्रोध, मान, माया, लोभ और मोह हमारे भीतर भरा हुआ है, क्या लोगों को धोखा देने और लूटने का कोई भाव है, इस तरह और भी कई चीज़ों की जाँच करनी चाहिए। क्योंकि यही सब, व्यक्ति की वास्तविक आध्यात्मिक प्रगति को तय करता है!
धर्म दो प्रकार के होते हैं:
रिलेटिव धर्म को आमतौर पर धर्म कहा जाता है और रिलेटिव धर्म का अर्थ है आध्यात्मिकता। अध्यात्म और धर्म के बीच यही मुख्य अंतर है। आज जिन अलग-अलग धर्मों को हम जानते हैं, जैसे कि जैन, वैष्णव, मुस्लिम और ईसाई, वे सभी रिलेटिव धर्म हैं; जबकि रियल धर्म स्वधर्म है। स्व यानी आत्मा।
रिलेटिव धर्म में मन, वाणी और देह के धर्म शामिल हैं। बुरे कर्मों से बचना और अच्छे कर्मों में जुट जाना ही धर्म है। धर्म हमें पकड़े रखता है; यह हमें नीचे नहीं गिरने देता।
हालाँकि, अध्यात्म धर्म से कई आगे है। एक आध्यात्मिक व्यक्ति का न सिर्फ अपने मन, वाणी और देह पर ही नियंत्रण नहीं है बल्कि वह दूसरों को भी प्रेरित करता है। जो व्यक्ति मात्र आत्मा को प्राप्त करने की इच्छा रखता है वह कभी भी अशुभ ध्यान नहीं कर सकता।
आध्यात्मिकता एक दृष्टि है जो व्यक्ति आत्मज्ञानी से प्राप्त करता है। जैसे जैसे व्यक्ति की आध्यात्मिक दृष्टि खुलती जाती है वैसे वैसे व्यक्ति को वास्तविकता जैसी है वैसी दिखने लगती है और वह सभी उलझनों से बाहर निकल जाता है। दृष्टि का अर्थ है देख पाना। जब व्यक्ति देख सकता है तभी प्रगति कर सकता है।
अध्यात्म हमारे अहंकार को कम करने में मदद करता है; यह ‘मैं जानता हूँ’ के कैफ़ को कम करता है और रिलेटिव धर्म कई बार कैफ़ चढ़ाता है। खुद जब संपूर्ण निष्पक्षपाती हो जाता है, खुद अपने आप के लिए भी संपूर्ण निष्पक्षपाती होकर, खुद के एक-एक सूक्ष्मतम तक के दोष भी देख सके, वही रियल धर्म में आया हुआ माना जाएगा।
अध्यात्म आत्मसाक्षात्कार को पूर्ण करने का मार्ग है। इसमें कोई कर्तापन नहीं है और कोई धार्मिक इसमें नहीं है। यदि आप इसे अच्छे से समझते हैं, तो शुद्धात्मा की जागृति में रह सकते हैं और हर समय मन, वचन और देह से जुदापन को अनुभव कर सकते हैं।
अक्रम विज्ञान से, हम प्रत्यक्ष ज्ञानी से प्रत्यक्ष आत्मज्ञान प्राप्त कर सकते हैं! ज्ञानी पुरुष!!! मात्र दो घंटों में यह जुदापन करा देते हैं। यही आत्मदृष्टि है।
अक्रम विज्ञान के इस मार्ग पर हमें अपना पुराना धर्म छोड़कर कोई नया धर्म अपनाना नहीं है। हम जिसमें भी मानते हैं, उसे वैसा ही रख सकते हैं। हमें अपने गुरु या अपना धर्म बदलने की कोई आवश्यकता नहीं है; हम जो भी धार्मिक विधियाँ करते हैं, उसे जारी रख सकते हैं।
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