चार प्रकार के ध्यान होते हैं, उनमें से मनुष्य निरंतर किसी एक ध्यान में रहते ही हैं। आपको यहाँ पर कौन सा ध्यान रहता है?
प्रश्नकर्ता: ‘मैं शुद्धात्मा हूँ,’ वह ध्यान।
दादाश्री: वह तो लक्ष्य कहलाता है, लेकिन ध्यान कब कहलाता है कि जब ध्याता बन जाए तब। लेकिन अपने (अक्रम विज्ञान) में तो ध्यान, ध्याता और ध्येय पूरा हो गया और योग के आठों अंग पूरे करके लक्ष्य में पहुँच गए हैं। अभी आप से कहें कि, ‘चलो, उठो, भोजन करने चलो,’ तो तब भी आप ज्ञाता-दृष्टा और परमानंदी रहते हो और फिर कहें कि, ‘आपको यहाँ भोजन नहीं करना है,’ तब भी ज्ञाता-दृष्टा और परमानंदी रह पाएँ तो उसे शुक्लध्यान कहा है। दुकान में गोलमाल करते हैं, कपड़ा खींचकर देते हैं, उसे रौद्रध्यान कहा है। ये मिलावट करते हैं वह रौद्रध्यान में जाता है। यह दुकान पर बैठे-बैठे ग्राहक की राह देखता है, उसे भगवान ने आर्तध्यान कहा है!
एक तरफ भगवान महावीर ने ४५ आगम कहे और एक तरफ चार शब्द कहे। इन दोनों का तौल समान बताया। चार शब्दों का जिसने ध्यान रखा, उसने इन सारे आगमों का ध्यान रखा। वे चार शब्द कौन से? रौद्रध्यान, आर्तध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान।
जगत् कैसा है? तेरा ग्राहक हो, तो तू सोलह के साढ़े सोलह कहेगा तो भी चला जानेवाला नहीं है और तेरा ग्राहक नहीं होगा तो तू पंद्रह कहेगा तो भी चला जाएगा। इतना भरोसा तो रख!
खुद, खुद की चिंता करे वह आर्तध्यान है। बेटी छोटी है, पैसे हैं नहीं, तो मैं क्या करूँगा? कैसे उसका विवाह करूँगा? वह आर्तध्यान। अभी तो बेटी छोटी है और भविष्य उलीच रहा है, वह है आर्तध्यान।
यह तो घर पर नापसंद व्यक्ति आए और चार दिन रहनेवाला हो, तो अंदर होता है कि, ‘जाए तो अच्छा, मेरे यहाँ कहाँ से आ पड़ा?’ वह सब आर्तध्यान और वापस ‘यह नालायक है’ ऐसी गालियाँ दे, वह रौद्रध्यान। आर्तध्यान और रौद्रध्यान करता हैं!
दूध शुद्ध हो और उसकी खीर बनानी हो तो उसमें भी नमक नहीं डालना चाहिए, लेकिन चीनी डालनी चाहिए। शुद्ध दूध में चीनी डालनी, वह धर्मध्यान। यह तो मेरे ही कर्म के दोष से, मेरी ही भूल से ये दुःख आ पड़ते हैं, वह सब धर्मध्यान में समाता है।
भगवान महावीर के चार शब्द सीख गया तो दूसरी तरफ पैंतालीस आगम पढ़ लिए!
वीतरागों का सच्चा धर्मध्यान हो तो क्लेश मिट जाते हैं।
धर्मध्यान किसे कहते हैं? किसी व्यक्ति ने हमारे लिए खराब किया तो उसकी तरफ किंचित्मात्र भी भाव नहीं बिगड़े और उसके प्रति क्या भाव रहे, ज्ञान का कैसा अवलंबन लें कि ‘मेरे ही कर्मों के उदय से ये भाई मुझे मिले हैं,’ और तब वह धर्मध्यान में जाता है। यह तो किसीने भरी सभा में भयंकर अपमान किया हो तो वह आशीर्वाद देकर भूल जाता है। अपमान को उपेक्षाभाव से भूले, उसे भगवान ने धर्मध्यान कहा है। ये तो ऐसे लोग हैं कि अपमान को मरते दम तक नहीं भूलते!
धर्मध्यानवाला श्रेष्ठी पुरुष कहलाता है। पूरे दिन, सुबह से उठे, तभी से लोगों को ओब्लाइज़ करता रहता है। ओब्लाइज़िंग नेचर का होता है। खुद सहन करके भी सामनेवाले को सुख देता है। दुःख तो जमा ही करता है। एक भी आर्तध्यान और रौद्रध्यान नहीं होता। उसके मुँह पर अरंडी का तेल चुपड़ा हुआ नहीं होता। मुख पर नूर दिखता है। पूरे गाँव के झगड़ों को वह निपटा देता है। उसे किसी के प्रति पक्षपात नहीं होता। जैन तो कैसा होना चाहिए? जैन तो श्रेष्ठी पुरुष माने जाते हैं, श्रेष्ठ पुरुष कहे जाते हैं। पचास-पचास मील के रेडियस (परिधि) में उनकी सुगंध आती है!
अभी तो श्रेष्ठी से सेठ (शेठ) बन गए, और उनके ड्राइवर से पूछें तो कहेगा कि जाने दो न उनकी बात। सेठ शब्द की तो मात्रा निकाल देने जैसी है! सेठ (शेठ) की मात्रा निकाल दें तो क्या बाकी रहेगा?
प्रश्नकर्ता: शठ(धूर्त)!
दादाश्री: अभी तो श्रेष्ठी कैसे हो गए हैं? दो साल पहले नये सोफे लाया हो तो भी पड़ोसी का देखकर फिर से दूसरे नये लाता है। यह तो स्पर्धा में पड़े हुए हैं। एक गद्दा और तकिया हो तब भी चले। लेकिन यह तो देखा-देखी और स्पर्धा चली है। उसे सेठ कैसे कहेंगे? ये गद्दे-तकिये की भारतीय बैठक तो बहुत उच्च है। लेकिन लोग उसे समझते नहीं और सोफे के पीछे लगे हैं। फलाँ ने ऐसा लिया है तो मुझे भी वैसा चाहिए, और उसके बाद जो कलह होती है! ड्राइवर के घर पर भी सोफे और सेठ के घर पर भी सोफे। यह तो सब नकली घुस गया है। किसीने ऐसे कपड़े पहने तो वैसे कपड़े पहनने की वृत्ति होती है! यह तो किसी को गैस पर रोटी पकाते देखा तो खुद गैस ले आया। अरे! कोयले और गैस की रोटी में फर्क नहीं समझता? चाहे जो भी खरीदो उसमें हर्ज नहीं है लेकिन स्पर्धा किसलिए? इस स्पर्धा से तो मानवता भी खो बैठे हैं। यह पाशवता तुझमें दिखेगी तो तू पशु में जाएगा। वर्ना श्रेष्ठी तो खुद पूर्ण सुखी होता है और मोहल्ले में सभी को सुखी करने की भावना में रहता है। जब खुद सुखी हो, तभी औरों को सुख दे सकता है। खुद ही यदि दुःखी हो वह औरों को क्या सुख देगा? दुःखियारा तो भक्ति करता है और सुखी होने के प्रयत्न में ही रहता है!
भले मोक्ष की बात एक तरफ रही, लेकिन आर्तध्यान और रौद्रध्यान पर तो अंकुश होना चाहिए न? उसकी छूट कैसे दी जाए? छूट किस चीज़ की होती है? धर्मध्यान की होती है। यह तो खुले हाथ से दुर्ध्यान का उपयोग करता है! कितना शोभा देता है और कितना शोभा नहीं देता, उतना तो होना ही चाहिए न?
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Book Excerpt: आप्तवाणी 2 (Page #129 - Paragraph #3 to #7, Entire Page #130 & #131, Page #132 - Paragraph #1)
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