मृत्यु के बाद आत्मा एक देह छोड़ता है और दूसरी तरफ़ जहाँ पिता का वीर्य और माता का रज दोनों के इकट्ठा होने का संजोग हो वहाँ सीधे ही गर्भ में प्रवेश करता है। तो हमें प्रश्न होता है कि नया जन्म कहाँ होगा यह किस आधार पर तय होता है?
डार्विन की ‘थियरी ऑफ इवोल्यूशन’ अर्थात् उत्क्रांतिवाद के अनुसार जीव डेवलप होते होते एक इन्द्रिय में से जानवर में और फिर मनुष्य में आता है। लेकिन मनुष्य में आने के बाद उसकी कौनसी गति होती है, इसका रहस्य भौतिक विज्ञान में नहीं मिलता। इसका खुलासा अध्यात्मिक विज्ञान में मिलता है।
जैसे कि वर्ष के अंत में, व्यवसाय की आय और व्यय का लेखा-जोखा बैलेंस शीट में रहता है, उसी तरह से मनुष्य ने पूरी ज़िंदगी में जो-जो कार्य किए हों, उसका पाप-पुण्य के हिसाब का लेखा-जोखा मृत्यु के समय आता है और आने वाले जन्म की गति निर्धारित होती है। मनुष्य देह में जन्म लेने के बाद ही बुद्धि और अहंकार का विकास होता है, जिसके आधार पर मनुष्य पुण्य और पापकर्म बाँधता है। जैसे हम बैंक के खाते में पैसे जमा करते हैं उसे क्रेडिट कहते हैं, उसी तरह से शुभ कर्म करेंगे तो पुण्यकर्म जमा होंगे। जैसे हम बैंक के खाते में से पैसे निकालते हैं उसे डेबिट कहते हैं, उसी तरह अशुभ कर्मों से पापकर्म बँधते हैं। अगर क्रेडिट-डेबिट दोनों का व्यापार बंद कर दें तो गतियों की भटकन में से मुक्ति मिल जाएगी।
चार गतियों में मनुष्यगति, देवगति, तिर्यंचगति और नर्कगति का समावेश होता है। इन चारो गतियों में जाने का रास्ता सिर्फ़ मनुष्यगति में से खुला होता है, क्योंकि सिर्फ़ मनुष्य देह में ही कर्म बँध सकते हैं। बाकी सभी गतियों में नया कर्म नहीं बँधता है, लेकिन पुराने कर्म भोगकर खत्म होते हैं। जैसे जैसे पुण्य ज़्यादा इकट्ठा होगा वैसे वैसे ऊँची गति या देवगति में जाएगा। जैसे पाप इकट्ठा होगा वैसे नीचे की गति यानी कि तिर्यंचगति में जाएगा। ज़्यादा पाप इकट्ठा होगा तो नर्कगति में जाएगा और अगर पुण्य-पाप बँधते बंद हो जाएँ तो मनुष्य मोक्ष में जाएगा।
पूरी ज़िंदगी जिसने सज्जनता रखी हो, मानव धर्म का पालन किया हो उसे दूसरे जन्म में मनुष्यगति प्राप्त होती है। मानव धर्म मतलब हमें जो पसंद हो उतना दूसरों को देना और जो नापसंद हो वह दूसरों को नहीं देना। किसी के ऊपर क्रोध करते समय ऐसा विचार आना चाहिए कि “कोई मेरे ऊपर क्रोध करे तो यह मुझे अच्छा नहीं लगता, तो मैं इसके ऊपर क्रोध करूँगा तो इसे कितना दुःख होगा!” तो यह मानवता के हद की अंदर आया कहा जाएगा। किसी स्त्री के ऊपर दृष्टि बिगाड़ने से पहले ऐसा विचार आए कि “मेरी वाइफ या बहन के ऊपर कोई दृष्टि बिगाड़े तो मुझसे सहन नहीं होता है तो किसी की वाइफ या बेटी के ऊपर मैं कैसे दृष्टि बिगाड़ सकता हूँ?” ऐसी जागृति रहे इसे मानव धर्म कहते हैं। किसी की अणहक्क (बिना हक की) लक्ष्मी लेने से पहले ऐसा विचार आए कि “इसकी जगह पर मेरे पैसे हों तो?” तो वह मानव धर्म का पालन कहा जाएगा। जो मनुष्य पूरी ज़िंदगी इस तरह से मानव धर्म का पालन करे तो फिर से मनुष्य में आएगा।
मनुष्य होना हो तो माँ-बाप और बुज़ुर्गों की दिल से सेवा करनी चाहिए, गुरु हों तो गुरु की सेवा करनी चाहिए और लोगों के प्रति परोपकार का भाव रखना चाहिए। व्यवहार साफ़ रखना चाहिए, मतलब कि कर्म के हिसाब में किसी के साथ लेन-देन बाकी ना रहे इस तरह से व्यवहार को संभालना चाहिए। किसी के भी साथ व्यवहार करने से पहले ऐसा विचार आना चाहिए कि “इसकी जगह मैं होता तो?” दूसरों को ज़रा सा भी दुःख हो जाए, तो उसके बाद खुद तुरंत पश्चात्ताप करे तो भी वह वापस मनुष्य में आ जाएगा। ऐसी जागृति के साथ जीवन के प्रत्येक कार्य करें तो मनुष्य देह फिर से प्राप्त होगी। वरना मनुष्य देह मिलनी मुश्किल है।
अपने फायदे के लिए जो अणहक्क ले ले या अणहक्क का भोगे उसका अगला जन्म तिर्यंचगति में आता है। अणहक्क का मतलब दूसरों के पैसे ले लेना या परस्त्री या परपुरुष के साथ अणहक्क का संबंध रखना। इसके बाद, खाने-पीने की चीज़ोंमें मिलावट करना, अपने स्वार्थ के लिए झूठ बोलना और कपट करना, बुद्धिपूर्वक जानबूझकर दूसरों को धोखा देना इन सभी का फल तिर्यंचगति आता है। दूसरों का ले लेने के विचार मात्र को ही पाशवता कहते हैं। जिसे लगातार अणहक्क का भोगने का विचार आए उसे मनुष्य कह ही नहीं सकते।
परम पूज्य दादा भगवान कहते हैं कि, “मन-वचन-काया और आत्मा का उपयोग लोगों के लिए कर। तेरे लिए करेगा तो खिरनी का (पेड़ का नाम) जन्म मिलेगा। फिर पाँच सौ साल तक भोगते ही रहना। फिर तेरे फल लोग खाएँगे, लकड़ियाँ जलाएँगे। फिर लोगों द्वारा तू क़ैदी की तरह काम में लिया जाएगा। इसलिए भगवान कहते हैं कि तेरे मन-वचन-काया और आत्मा का उपयोग दूसरों के लिए कर। फिर तुझे कोई भी दु:ख आए तो मुझे कहना। ”
जो मनुष्य अपने हक्क का सुख दूसरों को दे देते हैं, वह अगले भव में देवगति में जाते हैं। जो प्राप्त मन-वचन और काया की सभी शक्तियाँ पूरी ज़िंदगी दूसरों के लिए खर्च कर देते हैं वे देवगति में जाते हैं! सामने वाला अपकार करे तब भी उसके ऊपर उपकार करे ऐसे सुपर ह्यूमन स्वभाव के मनुष्य देवगति में जाते हैं। देवगति में पूर्व में किए हुए पुण्यकर्मों के फलस्वरूप भौतिक सुख भोगने को मिलते हैं।
परम पूज्य दादा भगवान कहते हैं कि “खुद को जो सुख भोगना है, खुद के लिए जो निर्माण हुआ, वह खुद को ज़रूरत है फिर भी औरों को दे देता है, वह सुपर ह्युमन है। अत: देवगति प्राप्त करता है।“
जो व्यक्ति दूसरों का अनर्थ नुकसान करे, ऐसा कार्य करे जिसमें उसे खुद को कोई फायदा ना हो रहा हो लकिन सामने वाले को बहुत नुकसान हो रहा हो तो वह नर्कगति में जाता है। अनर्थ नुकसान मतलब, कोई भी कारण बगैर लोगों के घर वगैरह जला देना, तूफ़ान करना, निरर्थक जीवों को मार डालना, कुँए या तालाब में ज़हर डाल देना ये सभी कर्म करने वाला नर्कगति का अधिकारी बनता है! अधम कृत्य जैसे कि, मनुष्य को मार कर मनुष्य का मांस खाना इन सब का फल नर्कगति आता है।
जो मनुष्य दूसरों के ऊपर अत्याचार या दुराचार करे, सामने वाले को दुःख देकर, सामने वाले के ऊपर क्रोध करके खुद खुश होता है उसे अधोगति में जाना पड़ता है।
ये चारों गतियाँ एक प्रकार की कैद है, जिसमें खुद के किए हुए कर्मों के फल भोगने होते हैं। मनुष्य सादी कैद में है। देवगति एक नज़रकैद है, जिसमें भौतिक सुख बहुत हैं पर छूटने का रास्ता नहीं है। जानवरें सख्त मज़दूरी की कैद में हैं, जिसमें निरंतर भूख और भय का दुःख रहता है। जबकि नर्कगति के जीव उम्रकैद की सज़ा में हैं, जिसमें अत्यंत दुःख भोगने पड़ते हैं।
जब मृत्यु के समय का अंतिम घंटा, अंतिम गुणस्थान हो तब पूरी ज़िंदगी के सार की एक फोटो खिंच जाती है। परम पूज्य दादाश्री कहते हैं कि “सारी ज़िंदगी आपने जो किया हो, उसका मृत्यु के समय आख़िरी घंटा होता है तब हिसाब आता है और उस हिसाब के अनुसार उसकी गति हो जाती है।”
मृत्युशैया में “मैं मर जाऊँगा, अभी तो बेटी की शादी करानी बाकी है, उसका क्या होगा?” ऐसी चिंता और उपाधि (बाहर से आने वाला दुःख) होती रहे तो समझना कि अधोगति होनी है। और निरंतर भगवान के ध्यान में देह छूटे तो समझ जाना कि ऊर्ध्वगति हुई। पूरी ज़िंदगी में जैसे कार्य किए होंगे उसके आधार पर ही अंतिम समय का ध्यान रहता है और उसके अनुसार ही गति तय होती है।
इसके उपरांत, जब दो तिहाई आयुष्य पूरा हो जाता है तब उस मनुष्य के आने वाले जन्म की फोटो खिंचती है। मान लीजिए कि, मनुष्य का आयुष्य अभी पचहत्तर साल का है, तो एक तिहाई आयुष्य बाकी रहे तब, यानी कि पचासवें साल की उम्र में उस मनुष्य की पहली फोटो खिंचती है। आयुष्य साठ साल का हो तो चालीस साल की उम्र में और इक्यासी साल का आयुष्य हो तो चौवन साल की उम्र में पहली फोटो खिंचती है। पूरी ज़िंदगी में जो भी अच्छे-बुरे कर्म किए उसके हिसाब से आने वाली गति की फोटो खिंच जाती है।
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