मृत्यु को टाल सकें ऐसा नहीं है यह जानने के बावजूद मृत्यु का भय हर किसी को रहता ही है। मृत्यु का भय नहीं रखना बल्कि मृत्यु की तैयारी रखनी है। आज कोई भाई शर्ट-पैंट बदलकर कुर्ता-पायजामा पहनकर आएँ तो हमें भय लगेगा? नहीं। क्योंकि भाई तो वही के वही हैं, उन्होंने तो सिर्फ़ कपड़े बदले हैं। मृत्यु भी इसी तरह से पुराना, फटा हुआ कोट निकालकर, नया कोट बदलने जैसी है, पुरानी देह छोड़कर नई देह धारण करने जैसी सहज ही है। लेकिन देहाध्यास (यह देह मैं हूँ ऐसा मानना) और ममता के कारण मृत्यु के समय पर, मनुष्य अनंत प्रकार के दुःख भोगता है। मृत्यु शब्द से ही घबराहट होती है। फिर मृत्यु के सामने आश्वासन पाने के लिए भगवान का आसरा लेता है। लेकिन सच्चे भगवान की पहचान नहीं होने से मनुष्य निराश्रित रूप से जीते हैं।
मृत्यु का भय आत्मा को नहीं पर अहंकार को रहता है कि ”मैं मर जाऊँगा, मैं मर जाऊँगा।“ आत्मा तो परमानेन्ट है और शरीर टेम्पररी है। नाम शरीर का है और शरीर के साथ-साथ नाम भी चला जाता है। इसलिए नाम भी विनाशी है। लेकिन मनुष्य नाम को ही ‘मैं हूँ’ मानता है। किसी भाई का नाम चंदूभाई हो तो वह ‘मैं ही चंदूभाई हूँ’ ऐसा मान लेता है। विनाशी को ‘मैं हूँ’ मानने से खुद भी विनाशी भाव में आता है। ऐसी अज्ञानता से ‘मर जाऊँगा’ ऐसा आभास होता है, उसका दुःख लगता है। बाकी आत्मा मरता ही नहीं है, लेकिन जब तक हम आत्मस्वरूप नहीं हुए हैं, तब तक मृत्यु का भय लगता रहता है। ज्ञानी पुरुष हमें आत्मा की पहचान करवा देते हैं, फिर “यह देह मैं हूँ ही नहीं”, ऐसा दृढ़ता के साथ फिट हो जाए तो मृत्यु का भय चला जाता है।
परम पूज्य दादा भगवान कहते हैं,“ये सभी चीज़ें बिगिनिंग-एन्ड वाली, परंतु बिगिनिंग और एन्ड को जो जानता है, वह जानने वाला कौन है? सभी चीज़ें बिगिनिंग व एन्ड वाली हैं, वे टेम्परेरी (अस्थायी) चीज़ें हैं। जिसका बिगिनिंग होता है, उसका एन्ड होता है। बिगिनिंग हो उसका एन्ड होता ही है, अवश्य। वे सभी टेम्परेरी चीज़ें हैं, लेकिन टेम्परेरी को जानने वाला कौन है? तू परमानेन्ट है। क्योंकि तू इन चीज़ों को ‘टेम्परेरी’ कहता है, इसलिए तू ‘परमानेन्ट’ है।“
जिस प्रसंग या अनुभव से डर घुसा हो उसका निष्कर्ष निकालें तो हम डर से छूट सकते हैं। एक बहन के भाई गुज़र गए थे और उनकी मृत्यु का समाचार फोन से आया था। इसलिए दूसरी बार किसी सगे का फोन आए तो बहन को तुरंत डर लगने लगे कि “कोई गुज़र तो नहीं गया होगा न?”
ऐसे समय में अनुभव लेना चाहिए कि हर एक फोन मृत्यु के समाचार का हो ऐसा नहीं होता। इसलिए दूसरी बार फोन आए तो ऐसा नहीं होगा। ऐसे पिछले अनुभवों से हमें सीखना चाहिए, नोट करना चाहिए और निष्कर्ष निकालकर वर्तमान में रहना चाहिए। फिर भी फोन की घंटी बजते ही अंदर से लगे कि “किसका फोन होगा? क्या होगा?” तब मज़बूत होकर अंदर वाले से कहना, “चुप! क्या हक़ीक़त है वह सुनने तो दे।” इस तरह से काल्पनिक भय के सामने स्ट्रोंग रह सकते हैं, क्योंकि वह एक साइकोलोजिकल इफेक्ट है, जो लंबे समय के बाद डिप्रेशन में डाल देगी।
मृत्यु के साथ जुड़ी भय उत्पन्न करने वाली मान्यताएँ छूटें तो भी भय से मुक्त हुआ जा सकता है। कुछ मान्यताओं के अनुसार, रात में कुत्ते रोएँ तो कहा जाता है कि यमराज जीव लेने के लिए आए हैं। यमदूत मार मारकर यमलोक ले जाते हैं, बहुत दुःख देते हैं। उसमें भी यमराज के स्वरूप का वर्णन तो डरावना होता है, जिसमें बड़े दांत, बड़े नाखून, बड़ी आँखों वाले और बड़े-बड़े सींगवाले यमराज भैंसे के ऊपर बैठकर आते हैं! ऐसे अलग-अलग प्रकार के वर्णन हमें बचपन से डराते रहते हैं। लेकिन परम पूज्य दादा भगवान जैसे प्रकट ज्ञानी पुरुष जब स्पष्टीकरण करते हैं कि यमराज नाम का कोई है ही नहीं, लेकिन नियमराज है। मनुष्य नियम से जन्म लेता है, नियम से जीवन जीता है, नियम से मृत्यु आती है। नियमराज का अपभ्रंश होकर यमराज हुआ है। ऐसी सच्ची समझ मिले तो कोई भय या भड़क रहेगी? यह तो मनुष्य गलत काम करने से रुकें इसलिए यमराज आएँगे और मार मारकर ले जाएँगे, ऐसा भय समाज में रखा गया है।
यमराज नाम का कोई है ही नहीं, लेकिन नियमराज है। मनुष्य नियम से जन्म लेता है, नियम से जीवन जीता है, नियम से मृत्यु आती है।
परम पूज्य दादाश्री की गज़ब की विचक्षणता, कि उन्हें तेरह साल की छोटी सी उम्र में यह पता लगाने का विचार आया कि यह यमराज क्या होंगे। जैसे-जैसे बड़े होते गए वैसे “अगर यमराज हैं तो उनकी ऑफिस कहाँ होगी, उसको तनख्वाह कौन देता है?” वगैरह तार्किक प्रश्न उन्हें उठते थे।
परम पूज्य दादाश्री एक प्रसंग का वर्णन करते हुए कहते हैं, “हमारे पड़ोस में एक चाचा थे। वे बहुत बीमार थे और मर जाएँ ऐसे थे, इसलिए रात में सभी बारी-बारी से सोने जाते थे। मैं तेरह साल का था तब एक रात मैंने कहा, कि भाई, कल रविवार है, तो मैं सो जाऊँगा। रात को मैं दवाई दूँगा। मतलब ग्यारह बजे तब चाचा तो सो गए, लेकिन मुझे नींद नहीं आई। तभी कुत्ता रोया। तब मैंने यह ज्ञान सुना था कि कुत्ता रोए तब समझना कि यमराज आएँ। वह कुत्ता रोया तो मुझे ये भय घुस गया कि इन चाचा को लेने यह यमराज आए हैं।
अब ये भय निकले किस तरह से? जिस ज्ञान से भय हुआ जब तक उसका विरोधी ज्ञान न हो तब तक भय नहीं निकलता। इसलिए फिर मुझे तो नींद नहीं आई और सुबह हो गई। चाचा तो जीवित थे। जागे तब मैंने कहा, ‘ये गलत है। किसी ने गलतफहमी डाल दी है यह, यमराज नाम की।’ इसलिए फिर मैं जाँच करने लगा, पंडितों से पूछ आया, ये यमराज नाम का जीव फिर कहाँ से आया है। तो उन्होंने कहा, ‘आप नहीं समझोगे। बोलिए मत, नहीं तो विरोधी हो जाओगे।‘ मैंने कहा, ‘नहीं, मुझे विरोध करना है। जो होना होगा वह होगा।’ मेरा तो क्रांतिकारी स्वभाव। दुःख के सामने पडूँ, पर उसका समाधान ले आऊँ।
जिस ज्ञान से भय हुआ जब तक उसका विरोधी ज्ञान न हो तब तक भय नहीं निकलता।
और फिर हम तो मूल क्षत्रिय न, इसलिए ऐसे गलत भय को नहीं चलने देते। इसलिए मैंने कहा, ‘लेकिन भगवान का ऑफिस होना चाहिए। पर ऑफिस कहाँ रखा है भगवान ने? और भगवान का यह रेवेन्यू, कलेक्टर कैसे कलेक्ट करता होगा? तो फिर इन सब के पीछे क्या है?’ उस दिन से विचार जागे इसलिए फिर जाँच करते लगा कि बात कुछ अलग है। बाद में बहुत विचार करते करते अंत तक विचार उलझे ही रहे लेकिन जैसे उम्र बढ़ती गई वैसे विचार करते ऐसा लगा कि यह जमरा नाम का कोई था ही नहीं। पूरे हिंदुस्तान में ये भय, भय, बंगाल में भी यह वहम, सभी जगह यह वहम।
जमरा के नाम से तो पूरी दुनिया डरती है। अब जमरा का मतलब क्या? यमराज। हमारे लोग इसे जमरा कहते हैं, पर यमराज नाम का कोई था ही नहीं। इसलिए कोई भय रखना ही नहीं। ऐसा कोई मारनेवाला है ही नहीं।”
यमराज नाम का कोई था ही नहीं। इसलिए कोई भय रखना ही नहीं। ऐसा कोई मारनेवाला है ही नहीं।
जब मृत्यु के भय के विचार घेर लें और बहुत से विकल्प खड़े हो जाएँ, तब दादाश्री हमें सुंदर चाबी दे रहे हैं।
दादाश्री: हम तो ऐसा इस देह को भी कह देते हैं कि, ‘तुझे जब छूटना हो तब छूट जाना, मेरी इच्छा नहीं है।’ क्योंकि नियम इतने अच्छे हैं कि नियम किसी को भी नहीं छोड़ता है, ऐसे सारे नियम हैं। यहाँ पर कहीं किसी को दया आए ऐसा नहीं है। इसलिए बेकार ही बिना काम के दया किसलिए माँगते हो? ‘हे भगवान! बचाना, बचाना!’ किस तरह बचाएँगे वे? भगवान खुद ही नहीं बचे थे न! यहाँ जन्म लिया न, वे सभी नहीं बचे थे न! अरे, कृष्ण भगवान तो पैर चढ़ाकर ऐसे सो रहे थे, तो उस पैर को शिकारी ने देखा, उसे ऐसा लगा कि यह कोई हिरण-विरण वगैरह है, तो उसने तीर मारा!
कर्म किसी को भी नहीं छोड़ते। क्योंकि यह स्वरूप अपना नहीं है। अपने स्वरूप में कोई नाम भी नहीं लेगा। यदि ‘आप’ शुद्धात्मा हो, तो कोई नाम लेने वाला नहीं है। परमात्मा ही हो! परंतु यहाँ किसी का ससुर बनना हो तो मुश्किल है!
प्रश्नकर्ता: हम देह से सिर्फ, ‘तुझे जब मरना हो तब तू मरना’, इतना कहें तो चलेगा?
दादाश्री: सिर्फ, ‘मरना हो तब मर जाना’ ऐसा कहने का क्या अर्थ होता है, कि यह एकपक्षी हो जाता है। यानी इससे तिरस्कार उत्पन्न न हो इसलिए साथ में कहते हैं, कि ‘हमारी इच्छा नहीं है।’ इस शरीर से हम क्या कहते हैं, कि ‘तुझे जब जाना हो तब तू जाना, मेरी इच्छा नहीं है।’ क्योंकि ‘मुझे तो अभी भी लोगों का कल्याण कैसे हो’, इतनी ही मेरी इच्छा है।
प्रश्नकर्ता: ऐसा कहने से क्या फायदा होता है?
दादाश्री: निर्विकल्प बनाता है।
प्रश्नकर्ता: किसे, हमें?
दादाश्री: हमें। यह तो हमारी खोज है! एक-एक चाबी, हमारी खोज है यह सब!
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