में मन में हिंसकभाव नहीं रखना है। 'मुझे किसी की हिंसा करनी नहीं' ऐसा भाव ही मज़बूत रखना और सुबह पहले बोलना चाहिए कि, 'मन-वचन-काया से किसी जीव को किंचित् मात्र दुख न हो।' ऐसा भाव बोलकर और फिर संसारी क्रिया शुरू करना, ताकि जिम्मेदारी कम हो जाए। फिर अपने पैर से कोई जीव कुचला गया, तब भी आप जिम्मेदार नहीं हैं। क्योंकि आज आपका भाव नहीं है वैसा। आपकी क्रिया भगवान देखते नहीं हैं, आपके भाव देखते हैं। कुदरत के बहीखाते में तो आपका भाव देखते हैं और यहाँ कि सरकार, यहाँ के लोगों के बहीखाते में आपकी क्रिया देखती है। लोगों का बहीखाता तो यहीं का यहीं पड़ा रहनेवाला है। कुदरत का खाता वहाँ काम लगेगा। इसलिए आपका भाव कहाँ है, उसकी जाँच करो।
इसलिए सुबह पहले ऐसा पाँच बार बोलकर निकला वह अहिंसक ही है। चाहे जहाँ फिर रक-झक कर आया हो, तब भी वह अहिंसक है। क्योंकि घर से निकला तब निश्चय करके निकला था और फिर घर जाकर वापिस ताला लगा देना। घर जाकर ऐसा कहना कि आज सारे दिन में निश्चय करके निकला, फिर भी जो कोई किसी को दुख हुआ हो, उसकी क्षमायाचना कर लेता हूँ। बस हो गया। फिर आपकी जोखिमदारी ही नहीं न!
किसी जीव की हिंसा करनी नहीं, करवानी नहीं या कर्त्ता के प्रति अनुमोदना नहीं करनी और मेरे मन-वचन-काया से किसी जीव को दुख न हो, ऐसी भावना रही कि आप अहिंसक हो गए! वह अहिंसा महाव्रत पूरा हो गया कहलाता है। मन में भावना निश्चित करी, निश्चित यानी डिसीज़न। यानी हम जो निश्चिच करते हैं और उसे कम्पलीट सिन्सियर रहें, उसी बात पर ही कायम रहें, तो महाव्रत कहलाता है और निश्चिच किया परन्तु कायम न रहें तो अणुव्रत कहलाता है।
Book Name : अहिंसा (Page #85 Paragraph #4, #5 & Page #86 Paragraph #1, #2)
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