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क्या आत्मज्ञान के बाद व्यक्ति अहिंसक बन जाता है?

अब इस रोड़ पर चंद्रमा का उजाला हो, तो वह आगे की लाइट नहीं होती, तो गाड़ी चलाते हैं या नहीं चलाते लोग?

प्रश्नकर्ता : चलाते हैं।

दादाश्री : तब उसे कोई शंका नहीं पड़ती। परन्तु लाइट हो वहाँ शंका पड़ती है। बाहर लाइट हो तो उस उजाले में उसे दिखता है कि ओहोहो इतने सारे जीवजंतु घूम रहे हैं और गाड़ी के साथ टकरा रहे हैं, वे सब मर जाते हैं। पर वहाँ उसे शंका होती है कि मैंने जीवहिंसा की।

हाँ, उन लोगों को लाइट नाम मात्र की भी नहीं है, इसलिए उन्हें जीवजंतु दिखते ही नहीं। इसलिए उन्हें इस बारे में शंका ही नहीं होती। जीव कुचल जाते हैं, ऐसा पता ही नहीं चलता न! पर जिसे जितना उजाला होता जाता है, उतने जीव दिखते जाते हैं। लाइट जैसे-जैसे बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे लाइट में जीवजंतु दिखते जाते हैं कि जंतु गाड़ी से टकरा जाते हैं और मर जाते हैं। ऐसी जागृति बढ़ती जाएँ वैसे खुद के दोष दिखते जाते हैं, नहीं तो लोगों को तो खुद के दोष दिखते ही नहीं न? आत्मा वह लाइट स्वरूप है, प्रकाश स्वरूप है, उस आत्मा को छूकर किसी जीव को कुछ दुख होता ही नहीं। क्योंकि जीवों के भी आरपार निकल जाए, आत्मा ऐसा है। जीव स्थूल हैं और आत्मा सूक्ष्मतम है। वह आत्मा अहिंसक ही है। यदि उस आत्मा में रहो तो 'आप' अहिंसक ही हो। और यदि देह के मालिक बनोगे तो हिंसक हो। वह आत्मा जानने जैसा है। ऐसा आत्मा जान लिया, फिर उसे किस तरह दोष बैठे? किस तरह हिंसा छुए? इसलिए आत्मस्वरूप होने के बाद कर्म बंधते ही नहीं।

प्रश्नकर्ता : फिर जीवहिंसा करे तब भी कर्म नहीं बंधते?

दादाश्री : हिंसा होती ही नहीं न! 'आत्मस्वरूप' से हिंसा ही होती नहीं। 'आत्मस्वरूप' 'जो' हुआ, हिंसा उससे होती ही नहीं।

इसलिए आत्मज्ञान होने के बाद कोई कानून छूता नहीं है। जब तक देहाध्यास है, तब तक सब कानून हैं और तब तक ही सब कर्म छूते हैं। आत्मज्ञान होने के बाद किसी शास्त्र का कानून छूता नहीं, कर्म छूता नहीं, हिंसा या कुछ भी छूता नहीं।

प्रश्नकर्ता : अहिंसाधर्म कैसा है? स्वयंभू?

दादाश्री : स्वयंभू नहीं। परन्तु अहिंसा आत्मा का स्वभाव है और हिंसा, वह आत्मा का विभाव है। परन्तु वास्तव में स्वभाव नहीं है यह। भीतर अंदर हमेशा के लिए रहनेवाला स्वभाव नहीं है यह। क्योंकि ऐसे तो गिनने जाएँ तो सभी बहुत स्वभाव होते हैं। इसलिए ये सब द्वंद्व हैं।

इसलिए बात को ही समझने की ज़रूरत है। यह 'अक्रमविज्ञान' है। यह वीतरागों का, चौबीस तीर्थंकरों का विज्ञान है! पर आपने सुना नहीं इसलिए आपको आश्चर्य लगता है कि ऐसा भला नये प्रकार का तो होता होगा? इसलिए भय घुस जाता है। और भय घुस जाए तब फिर कार्य नहीं होता। भय छूटे तो कार्य हो न!

वह आत्मस्वरूप तो इतना सूक्ष्म है कि अग्नि के अंदर से आरपार निकल जाए तब भी कुछ न हो। बोलो अब, वहाँ पर हिंसा किस तरह छुए? यह तो खुद का स्वरूप स्थूल है ऐसा जिसे देहाध्यास स्वभाव है, वहाँ पर उसे हिंसा छुए। इसलिए ऐसा होता हो, आत्मस्वरूप को हिंसा छूती हो, तब तो कोई मोक्ष ही न जाए। परन्तु मोक्ष की तो बहुत सुंदर व्यवस्था है। यह तो अभी आप जिस जगह पर बैठे हो, वहाँ रहकर, वे सभी बातें समझी नहीं जा सकतीं, खुद आत्मस्वरूप होने के बाद सब समझ में आ जाता है, विज्ञान खुल्ला हो जाता है!

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