प्रश्नकर्ता : मुझे सामनेवाले मनुष्य के गुण के बजाय दोष अधिक दिखते हैं, उसका क्या कारण है?
दादाश्री : सारे जगत् के लोगों को अभी ऐसा हो गया है। दृष्टि ही बिगड़ गई है। उनके गुण देखते नहीं, दोष खोज निकालते हैं तुरन्त! और दोष मिल भी जाते हैं, और खुद के दोष मिलते नहीं न!
प्रश्नकर्ता : सामनेवाले के दोष दिखते हैं, वे दोष खुद में होते हैं?
दादाश्री : ऐसा कोई नियम नहीं है, फिर भी ऐसे दोष होते हैं। यह बुद्धि क्या करती है? खुद के दोष ढँकती रहती है और दूसरों के देखती है। यह तो उलटे मनुष्य का काम है। जिसकी भूलें मिट गई हों, वह दूसरों की भूलें नहीं देखता है। वह कुटेव ही नहीं होती। सहज में निर्दोष ही देखता है। ज्ञान ऐसा हो कि ज़रा सी भी भूल नहीं देखे।
प्रश्नकर्ता : दूसरों की भूल ही मनुष्य खोजता है न?
दादाश्री : भूल किसीकी देखनी नहीं चाहिए। किसीकी भूल देखोगे, वह भयंकर गुनाह है। तू क्या न्यायाधीश है? तुझे क्या समझ में आता है कि तू भूल देखता है। बड़े भूल देखनेवाले आए? भूल देखता है, तो फिर तू बिना भान का है। बेभान है। भूल होती होगी? दूसरों की भूल देखी जाती होगी? भूल देखना, वह गुनाह है, भयंकर गुनाह है। भूल तो अपनी ही दिखती नहीं। दूसरों की किसलिए खोजते हो? भूल तुम्हारी खुद की देखनी है, दूसरे किसीकी देखनी नहीं है।
और ऐसे यदि भूलें देखने में आएँ तो, यह उसकी भूल देखे, वह उसकी भूल देखे, फिर क्या हो? किसीकी भूल ही नहीं देखनी चाहिए। है भी नहीं भूल। जो भूल निकालता है, वह बिलकुल नालायक होता है। सामनेवाले की थोड़ी भी भूल होती है, ऐसा मैंने ज़रा भी देखा तो वह मुझमें नालायकी होती है। उसके पीछे खराब आशय होते हैं। हाँ, भूल कहाँ से लाए? अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार कार्य करते हैं। उसमें भूल कहाँ से आई? यह न्यायाधीश का डिपार्टमेन्ट है? सब-सबकी प्रकृति के अनुसार काम करते हैं। मैं भी मेरी प्रकृति के अनुसार काम करता रहता हूँ, प्रकृति तो होती ही है न!
प्रश्नकर्ता :यही भूल जाते हैं कि यह सामनेवाला मनुष्य कर्त्ता नहीं है।
दादाश्री : हाँ, ऐसी उसकी जागृति रहे तो कोई हर्ज नहीं। सामनेवाले की भूल देखी, वहाँ से ही नया संसार खड़ा हुआ। इसलिए जब तक वह भूल मिटे नहीं, तब तक उसका निबेड़ा आता नहीं है। मनुष्य उलझा हुआ रहता है।
हमें तो क्षणभर के लिए भी किसीकी भूल दिखी नहीं है और दिखाई दे, तो हम उसके मुँह पर कह देते हैं। ढँकते नहीं कि भाई, ऐसी भूल हमें दिखती है। तुझे ज़रूरत हो, तो स्वीकार लेना, नहीं तो एक ओर रख देना।
Book Name: निजदोष दर्शन से... निर्दोष! (Page #31 Paragragh #4 to #9 & Page #32 Paragragh #1 to #5)
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