प्रश्नकर्ता : मतलब दूसरों का दोष नहीं, हमारा ही दोष है?
दादाश्री : हाँ, ऐसा है न, बुद्धि को एक जगह स्थिर किए बिना काम नहीं होगा। इसलिए यदि उसका दोष देखोगे तो भी बुद्धि स्थिर होगी। और उसे निर्दोष देखो और खुद का दोष देखो, तो भी बुद्धि स्थिर होगी। नहीं तो यों ही बुद्धि स्थिर होती नहीं है न फिर!
प्रश्नकर्ता : यानी कहीं पर तो दोष है। उसका अर्थ यह हुआ कि वहाँ दोष नहीं है तो यहाँ पर दोष है।
दादाश्री : हाँ, उतना ही फर्क।
प्रश्नकर्ता : अब समझ में आया कि यह निर्दोष किस तरह है!
दादाश्री : क्योंकि बुद्धि क्या कहती है? बुद्धि समाधान खोजती है, स्थिरता खोजती है। इसलिए आप किसीका दोष निकालो तो बुद्धि स्थिर होती है। फिर उसकी ज़िम्मेदारी चाहे जो भी हो। पर किसीका दोष निकाला न, फिर बुद्धि स्थिर होती है। दोष किसीका नहीं, मेरा ही है, तब भी बुद्धि स्थिर होती है। पर ऐसे बुद्धि स्थिर होने का मार्ग वह मोक्षमार्ग!
अब बुद्धि ऐसे भी स्थिर होती है और वैसे भी स्थिर होती है, लेकिन जो किसी पर आरोपण हुए बिना की बुद्धि हो, ऐसी बुद्धि की स्थिरता होनी चाहिए। इसलिए हम खुद पर ही डालें तो इसका हल निकले ऐसा है। तब बुद्धि भी स्थिर होगी न!
इस प्रकार इस जगत् में द़खल हो रही है और खुद की भूल पकड़ में नहीं आती है। और सामनेवाले की भूल तुरन्त पता चल जाता है। क्योंकि बुद्धि का उपयोग किया है न! और जिसको बुद्धि का उपयोग नहीं हुआ उसे तो कोई भूल होने का सवाल ही नहीं रहता है न, कोई शिकायत ही नहीं है न! गायें-भैंसे हैं, सब ऐसे अनंत जीव हैं। उन लोगों को कोई शिकायत नहीं है, बिलकुल शिकायत नहीं है।
Book Name: निजदोष दर्शन से... निर्दोष! (Page #56 Paragragh #2 to #9 & Page #57 Paragragh #1)
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