ॐ की यथार्थ समझ
प्रश्नकर्ता: दादा, ॐ क्या है?
दादाश्री: नवकार मंत्र बोलें, एकाग्र ध्यान से, वह ॐ और ‘मैं शुद्धात्मा हूँ’ उसके सहित नवकार बोले तो ‘ॐकार बिंदु संयुक्तम्’ है।
ॐकार बिंदु संयुक्तम्,नित्यम्,ध्यायन्ति योगीनः
कामदं,मोक्षदं चैव,ॐकार नमो नमः
बाहर नवकार बोलते हैं, लेकिन यदि सच्चे दिल से, एकाग्रता से बोलें तो ॐकार सुंदर कहा जाएगा, वह सभी पंच परमेष्टि भगवानों को पहुँचता है। ॐ बोलते हैं, तब भी पंच परमेष्टि भगवान को पहुँचता है और नवकार बोलें तो भी उन सभी को पहुँचता है। सारे बैर को भुलाने के लिए हमने तीनों मंत्र साथ में रखे हैं, क्योंकि शुद्धात्मा हो जाने के बाद निष्पक्षपातीपन उत्पन्न होता है। अपना यह ‘मैं शुद्धात्मा हूँ,’ वह लक्ष्य ॐकार बिंदु संयुक्तम् कहलाता है और उसका फल क्या है? मोक्ष।
ये बाहर ॐ का जो कुछ भी चल रहा है, उसकी उन लोगों को ज़रूरत है। क्योंकि जब तक सही बात पकड़ में नहीं आती, तब तक स्थूल चीज़ पकड़ लेनी पड़ती है। सूक्ष्म प्रकार से ज्ञानीपुरुष, वे ॐ कहलाते हैं। जिन्होंने आत्मा प्राप्त किया है ऐसे सत्पुरुषों से लेकर पूर्णाहुति स्वरूप तक के लोगों को ॐ स्वरूप कहते हैं, और उससे आगे जाने पर मुक्ति होती है। मुक्ति कब होती है? जब ॐकार बिंदु संयुक्तम् हो जाए तब। यहाँ आपको हम ज्ञानप्रकाश देते हैं, तब ॐकार बिंदु संयुक्तम् हो जाता है और ॐकार बिंदु संयुक्तम् हो जाए तो मोक्ष होता है। फिर कोई भी उसका मोक्ष रोक नहीं सकता!
नवकार मंत्र सन्यस्त मंत्र कहलाता है। जब तक व्यवहार में हैं तब तक तीनों मंत्र - नवकार, ॐ नमो भगवते वासुदेवाय और ॐ नमः शिवाय - इस प्रकार से साथ में बोलने होते हैं जबकि सन्यस्त लेने के बाद सिर्फ नवकार बोलें तो चलता है। यह तो सन्यस्त लेने से पहले सिर्फ नवकार मंत्र को पकड़कर बैठ गए हैं।
1. यह नवकार मंत्र वही ॐ है। इन सबके संक्षिप्त रूप में ॐ शब्द रखा है।करनेवालों ने लोगों के लाभ के हेतु ऐसा किया |
2. तीर्थंकर किसे कहते हैं? पंच परमेष्टि किसे कहते हैं? यह सब समझकर बोले तो ॐ का फल मिलता है।
3. यह नवकार मंत्र जो है, उसे बोलने से ॐ (पंच परमेष्टि) खुश हो जायें, भगवान खुश हो जायें। यह अकेला ॐ बोलने से कभी ॐ खुश नहीं होता।
4. भगवन ने ओरम स्वरूप किसे कहा है? जिसे मैं यहाँ ज्ञान देता हूँ न, वह उस दिन से ही ‘मैं शुद्धात्मा हूँ’ बोलने लगता है, तब से वह साधु हुआ। शुद्धात्मा दशा साधे वह साधु।
Book Name: आप्तवाणी 2 (Entire Page #239)
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