योगसाधना से परमात्मदर्शन
प्रश्नकर्ता: योगसाधना से परमात्मदर्शन हो सकता है?
दादाश्री: योगसाधना से क्या नहीं हो सकता? परन्तु किसका योग?
प्रश्नकर्ता: ये सहज राजयोग कहते हैं, वह योग।
दादाश्री: हाँ, परन्तु किसे राजयोग कहते हो?
प्रश्नकर्ता: मन की एकाग्रता होती है।
दादाश्री: उससे आत्मा को क्या फायदा? आपको मोक्ष चाहिए या मन को मज़बूत करना है?
प्रश्नकर्ता: सिर्फ परमात्मा के दर्शन की बात कर रहा हूँ।
दादाश्री: तो फिर बेचारे मन को क्यों बिना बात परेशान करते हो? एकाग्रता करने में हर्ज नहीं है, परन्तु आपको परमात्मा के दर्शन करने हों तो मन को परेशान करने की ज़रूरत नहीं है।
प्रश्नकर्ता: एकाग्रता से शून्यता आती है क्या?
दादाश्री: आती ज़रूर है, परन्तु वह शून्यता ‘रिलेटिव’ है। ‘टेम्परेरी एडजस्टमेन्ट’ है।
प्रश्नकर्ता: उस समय ये मन और बुद्धि क्या करते हैं?
दादाश्री: थोड़ी देर के लिए स्थिर हो जाते हैं, फिर वैसे के वैसे। उसमें ‘अपना’ कुछ भी नहीं है। अपना ध्येय पूरा नहीं होता और योग ‘अबव नॉर्मल’ हो गया हो तो वह महान रोगी है। मेरे पास बहुत सारे योगवाले आते हैं। वे यहाँ दर्शन करने के लिए अंगूठे को छूएँ तो उससे पहले उनका पूरा शरीर काँप जाता है, क्योंकि इगोइज़म निकलता है। जहाँ-जहाँ जो करो उस कर्त्तापन का अहंकार बढ़ेगा, वैसे-वैसे परमात्मा दूर जाते जाएँगे।
1. यम, नियम, आसन, प्राणायम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि-योग के ये सारे अष्टांग, यहाँ पर, यह ज्ञान प्राप्त होने पर, आपके लिये पूरे हो गये। और उससे आगे आत्मा का लक्ष्य भी आपको बैठ गया है।
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Book Name: आप्तवाणी 5 (Page #111- Paragraph #2 to #13, Page #112 - Paragraph #1)
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