सभी जगह फँसाव! कहाँ जाएँ?
जिसका रास्ता नहीं उसे क्या कहा जाए? जिसका रास्ता नहीं हो उसके पीछे रोना-धोना नहीं करते। यह अनिवार्य जगत् है। घर में पत्नी का क्लेशवाला स्वभाव पसंद नहीं हो, बड़े भाई का स्वभाव पसंद नहीं हो, इस तरफ पिताजी का स्वभाव पसंद नहीं हो, ऐसे टोले में मनुष्य फँस जाए तब भी रहना पड़ता है। कहाँ जाए पर? इस फँसाव से चिढ़ मचती है, पर जाए कहा? चारों तरफ बाड़ है। समाज की बाड़ होती है। ‘समाज मुझे क्या कहेगा?’ सरकार की भी बाड़ें होती हैं। यदि परेशान होकर जलसमाधि लेने जुहू के किनारे जाए तो पुलिसवाले पकड़ें। ‘अरे भाई, मुझे आत्महत्या करने दे न चैन से, मरने दे न चैन से।’ तब वह कहे, ‘ना, मरने भी नहीं दिया जा सकता। यहाँ तो आत्महत्या करने के प्रयास का गुनाह किया इसलिए तुझे जेल में डालते हैं।’ मरने भी नहीं देते और जीने भी नहीं देते, इसका नाम संसार! इसलिए रहो न चैन से... और सिगरेट पीकर सो नहीं जाएँ? ऐसा यह अनिवार्यतावाला जगत्! मरने भी नहीं दे और जीने भी नहीं दे।
इसलिए जैसे-तैसे करके एडजस्ट होकर टाइम बिता देना चाहिए ताकि उधार चुक जाए। किसी का पच्चीस वर्ष का, किसी का पंद्रह वर्ष का, किसी का तीस वर्ष का, जबरदस्ती हमें उधार पूरा करना पड़ता है। नहीं पसंद हो तब भी उसी के उसी कमरे में साथ में रहना पड़ता है। यहाँ बिस्तर मेमसाहब का और यहाँ बिस्तर भाईसाहब का। मुँह टेढ़े फिराकर सो जाएँ, तब भी विचार में तो मेमसाहब को भाईसाहब ही आते हैं न? छुटकारा ही नहीं है। यह जगत् ही ऐसा है। उसमें भी हमें वे अकेले पसंद नहीं हैं ऐसा नहीं है, उन्हें भी वापिस हम पसंद नहीं होते हैं! इसलिए इसमें मज़े लेने जैसा नहीं है।
इस संसार के झँझट में विचारशील को पुसाता नहीं है। जो विचारशील नहीं है, उसे तो यह झँझट है उसका भी पता नहीं चलता है। वह मोटा खाता कहलाता है। जैसे कि कान से बहरा मनुष्य हो उसके सामने उसकी चाहे जितनी गुप्त बातें करें, उससे क्या परेशानी है? ऐसा अंदर भी बहरा होता है सब इसलिए उसे यह जंजाल पुसाता है, बाकी जगत् में मज़े ढूँढने जाता है तो इसमें तो भाई कोई मज़ा होता होगा?
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