विज्ञान द्वारा मुक्ति
प्रश्नकर्ता: मोक्ष में जाने की भावना है, परन्तु उस रास्ते में खामी है तो क्या करना चाहिए?
दादाश्री: किस चीज़ की खामी है?
प्रश्नकर्ता: कर्म हैं न? कर्म तो करते ही रहते हैं।
दादाश्री: कर्म किससे बंधते हैं, ऐसा हमें जानना चाहिए न?
प्रश्नकर्ता: अशुभ भाव से और शुभ भाव से।
दादाश्री: शुभ भाव भी न करे और अशुभ भाव भी न करे, उसे कर्म नहीं बंधते। शुद्ध भाव हों, उसे कर्म नहीं बंधते। अशुभ भाव से पाप बंधते हैं और शुभ भाव से पुण्य बंधते हैं। पुण्य का फल मीठा आता है और पाप का फल कड़वा आता है। गालियाँ दे, तब मुँह कड़वा हो जाता है न?
प्रश्नकर्ता: हाँ।
दादाश्री: और माला पहनाएँ उस घड़ी? मीठा लगता है। शुभ का फल मीठा और अशुभ का फल कड़वा और शुद्ध का फल मोक्ष!
प्रश्नकर्ता: जीव मुक्ति कब पाता है?
दादाश्री: शुद्ध हो जाए तो मुक्ति पाता है। शुद्धता को कुछ भी स्पर्श ही नहीं करता। शुभ को स्पर्श करता है। यह शुभ का मार्ग ही नहीं है। यह शुद्ध का मार्ग है। यानी कि निर्लेप मार्ग है।
यह ‘विज्ञान’ है। ‘विज्ञान’ अर्थात् सब प्रकार से मुक्त करवा देता है। यदि शुद्ध हो गया, तो कुछ भी स्पर्श नहीं करेगा, और शुभ है तो अशुभ स्पर्श करेगा। अर्थात् शुभवाले को शुभ रास्ता लेना पड़ेगा। अर्थात् शुभमार्गी जो कुछ करते हैं, वह ठीक है, परन्तु यह तो शुद्ध का मार्ग है। सभी शुद्ध उपयोगी, इसलिए और कोई झंझट ही नहीं।
यह मार्ग अलग ही प्रकार का है। विज्ञान है यह। विज्ञान अर्थात् जिसे जानने से ही मुक्त हो जाते हैं। करना कुछ भी नहीं है। जानने से ही मुक्ति! यह बाहर है, वह ज्ञान है। ज्ञान अर्थात् जो क्रियाकारी नहीं होता और यह विज्ञान क्रियाकारी होता है। यह ‘विज्ञान’ प्राप्त होने के बाद अंदर आपमें क्रिया करता ही रहता है। शुद्ध क्रिया करता है। अशुद्धता उसे स्पर्श ही नहीं करती। यह विज्ञान अलग ही प्रकार का है। ‘अक्रम विज्ञान’ है!!
प्रश्नकर्ता: जिसे निष्काम कर्म कहा है, वह यह है?
दादाश्री: निष्काम कर्म अलग ही प्रकार का है। निष्काम कर्म तो एक प्रकार का रास्ता है। उसमें तो कर्तापद चाहिए। खुद कर्ता हो, तो निष्काम कर्म होता है। यहाँ कर्तापद ही नहीं है। यह तो शुद्ध पद है। जहाँ कर्तापद है वहाँ शुद्धपद नहीं है, शुभ पद है।
Book Excerpt: आप्तवाणी 5 (Page #94 - Paragraph #4 to #9, Page #95 - Paragraph #1 to #8)
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