चित्त शुद्धिकरण ही है अध्यात्मसिद्धि!
प्रश्नकर्ता: कर्म की शुद्धि किस तरह होती है?
दादाश्री: कर्म की शुद्धि, वह चित्त की शुद्धि करने से हो जाती है। चित्त की शुद्धि हो तो कर्म की शुद्धि हो जाती है। यह तो चित्त की अशुद्धि के कारण कर्म अशुद्ध हो जाते हैं। चित्त शुद्ध हो जाए तो कर्म शुद्ध हो ही जाएँगे।
प्रश्नकर्ता: हर एक कर्म शुद्ध हो जाएगा? चाहे कैसा भी कर्म करे तो शुद्ध हो जाएगा?
दादाश्री: चित्त शुद्ध हो जाए न तो फिर कर्म शुद्ध हो जाएगा। चित्त अशुद्ध हो तो कर्म अशुद्ध, चित्त शुभ हो तो कर्म शुभ, चित्त अशुभ हो तो कर्म अशुभ! वह सब चित्त पर डिपेन्ड (निर्भर) करता है। सब कुछ। इसलिए चित्त को रिपेयर (ठीक) करना है। अपने लोग क्या कहते हैं कि ‘मुझे चित्त शुद्धि करनी है।’ अर्थात चित्त शुद्धि करने के लिए ही इस जगत् में अध्यात्म है। इसीलिए चित्त शुद्धि करने की ज़रूरत है। चोरी करने से चित्त अशुद्ध हो जाता है, लेकिन फिर पश्चाताप करने से वही चित्त शुद्ध हो जाता है। और पश्चाताप नहीं करने की वजह से इन्हीं लोगों में चित्त की अशुद्धि रह गई है। इसलिए ये सारे अशुद्ध कर्म होते रहते हैं। पश्चाताप करते ही नहीं हैं। जानते हैं, फिर भी पश्चाताप नहीं करते। जानते हैं फिर भी क्या कहते हैं, कि ‘सब ऐसा ही करते हैं न?’
अर्थात खुद का चित्त अशुद्ध हो रहा है, इसका भान नहीं रहता।
प्रश्नकर्ता: व्यवहार शुद्धि किस तरह होती है?
दादाश्री: यदि व्यवहार में चित्त की शुद्धि रखे कि भाई, हमें इसे धोखा नहीं देना है, तो फिर व्यवहार शुद्धि हो गई। और अगर धोखा दिया तो व्यवहार अशुद्ध हो जाएगा। अर्थात् नीति-नियम और प्रामाणिकता से चलेंगे तो व्यवहार शुद्धि रहेगी।
ओनेस्टी इज़ द बेस्ट पॉलिसी, डिसओनेस्टी इज़ द बेस्ट फूलिशनेस। (ईमानदारी ही उत्तम नीति है और बेईमानी उत्तम मूर्खता है!)
व्यवहार शुद्धि के लिए, सामनेवाले को दुःख न हो, ऐसा व्यवहार रखें, उसे व्यवहार शुद्धि कहते हैं। बिल्कुल भी दुःख न हो। अगर हमें (दुःख) हो जाए तो सहन कर लेना चाहिए, लेकिन सामनेवाले को तो दुःख होना ही नहीं चाहिए।
प्रश्नकर्ता: अपने कर्मों के प्रतिक्रमण करें तो छूट जायेंगे या नहीं?
दादाश्री: प्रतिक्रमण करने से लगभग सब खत्म हो जाते हैंI थोड़े बहुत बचते हैं। ये ही कर्म अतिक्रमण से बंधते हैं। जितनी रुचि से अतिक्रमण किया हो उतना भुगतना पड़ेगा। प्रतिक्रमण करने पर भी, जितना स्वाद लिया है उतना तो भुगतना ही पड़ेगा। जितनी रुचि उतना भुगतना ही पड़ेगा। अंदर स्वाद लिया है न? ज़्यादा दोष अतिक्रमण से है। सहजभाव से व्यवहार चल रहा हो तो उसमें कोई हर्ज नहीं है। प्रतिक्रमण के परिणामस्वरूप नया कर्म बंधन रुक जाता है। पुराने तो भुगतने ही पड़ेंगे।
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