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हमारा अनितिवाला व्यव्हार होते हुए भी हम किस तरह से निति से व्यवसाय कर सकते है? अप्रामाणिक होते हुए भी हम किस प्रकार प्रामाणिक बन सकते है?

व्यवसाय में अणहक्क का कुछ भी नहीं घुसना चाहिए और जिस दिन बिना हक़ का लोगे, उस दिन से व्यवसाय में बरकत नहीं रहेगी। भगवान हाथ डालते ही नहीं। व्यवसाय में तो आपकी कुशलता और आपकी नीतिमत्ता, ये दो ही काम आएँगे। अनीति से साल-दो साल ठीक मिलेगा पर फिर नुकसान होगा। गलत हो जाए, तब यदि पछतावा करोगे तो भी छूट जाओगे। व्यवहार का सार यदि कुछ है, तो वह नीति ही है। पैसे कम होंगे लेकिन नीति होगी तो भी आपको शांति रहेगी और यदि नीति नहीं होगी तो, पैसे ज़्यादा होने पर भी अशांति रहेगी। नैतिकता के बिना धर्म ही नहीं। धर्म की नींव ही नैतिकता है।

इसमें ऐसा कहते हैं कि संपूर्ण नीति का पालन कर सके तो करना और पालन नहीं हो सके तो निश्चय करना कि दिन में तीन बार तो मुझे नीति का पालन करना ही है, वर्ना फिर नियम में रहकर अनीति करेगा तो वह भी नीति है। जो व्यक्ति नियम में रहकर अनीति करता है उसे मैं नीति कहता हूँ। भगवान के प्रतिनिधि के तौर पर, वीतरागों के प्रतिनिधि के तौर पर मैं कहता हूँ कि अनीति भी नियम में रहकर कर, वह नियम ही तुझे मोक्ष में ले जाएगा। अनीति करे कि नीति करे, उसका मेरे लिए महत्व नहीं है, लेकिन नियम में रहकर कर। पूरी दुनिया ने जहाँ पर बहुत सख्ती से मना किया है, वहाँ हमने कहा है कि इसमें हर्ज नहीं है, तू नियम में रहकर कर।

हमने तो ऐसा कहा है कि अनीति कर लेकिन नियम से करना। एक नियम बना कि मुझे इतनी ही अनीति करनी है, इससे ज़्यादा नहीं। दुकान पर रोज़ दस रुपये अधिक लेने हैं, उससे अधिक पाँच सौ रुपये आएँ, फिर भी मुझे नहीं लेने हैं।

यह हमारा गूढ़ वाक्य है। यह वाक्य यदि समझ में आ जाए तो काम हो जाए। भगवान भी खुश हो जाएँगे कि पराए चरागाह में खाना है, फिर भी हिसाब से खाता है! वर्ना यदि पराई चरागाह में खाना हो, तो वहाँ तो फिर सीमा होती ही नहीं न?!

आपकी समझ में आता है न? कि ‘अनीति का भी नियम रख’। मैं क्या कहता हूँ कि, ‘तुझे रिश्वत नहीं लेनी और तुझे पाँच सौ की कमी है, तो तू कब तक क्लेश करेगा?’ लोगों से-मित्रों से रुपये उधार लेता है, उससे और ज़्यादा जोखिम उठाता है। अत: मैं उसे समझाता हूँ कि ‘भाई तू अनीति कर, लेकिन नियम से कर।’ अब नियम से अनीति करनेवाला नीतिमान से भी श्रेष्ठ है। क्योंकि नीतिमान के मन में ऐसा रोग घुस जाता है कि ‘मैं कुछ हूँ’। जब कि इसके मन में ऐसा कोई रोग नहीं घुसता?

ऐसा कोई सिखाएगा ही नहीं न? नियम से अनीति करना बहुत बड़ा कार्य है।

अनीति भी यदि नियम से हैं तो उसका मोक्ष होगा, लेकिन जो अनीति नहीं करता, जो रिश्वत नहीं लेता उसका मोक्ष कैसे होगा? क्योंकि जो रिश्वत नहीं लेता उसे, ‘मैं रिश्वत नहीं लेता’ यह कैफ़ चढ़ जाता है। भगवान भी उसे निकाल बाहर करेंगे कि, ‘चल जा, तेरा चेहरा खराब दिखता है।’ इसका यह अर्थ नहीं है कि हम रिश्वत लेने को कह रहे हैं, लेकिन यदि तुझे अनीति ही करनी हो तो तू नियम से करना। नियम बना कि भाई मैं रिश्वत में पाँच सौ रुपये ही लूँगा। पाँच सौ से ज़्यादा कोई कुछ भी दे, अरे पाँच हज़ार रुपये दे, तो वे भी वापस कर दूँगा। घर खर्च में जितने कम पड़ते हों उतने ही, पाँच सौ रुपये ही रिश्वत के लेना। बाकी, ऐसा जोखिम तो हम ही लेते हैं। क्योंकि ऐसे काल में लोग रिश्वत नहीं लें तो क्या करें बेचारे? तेल-घी के दाम कितने बढ़ गए हैं। शक्कर के दाम कितने ज़्यादा हैं? तब क्या बच्चों की फ़ीस के पैसे दिए बिना चलेगा? देखो न! तेल का भाव सत्रह रुपये बताते हैं न!

प्रश्नकर्ता: हाँ।

दादाश्री: जो व्यापारी काला बाज़ार करते हैं, उनका गुज़ारा होता है जब कि नौकरों का रक्षण करनेवाला कोई रहा ही नहीं?! इसीलिए हम कहते हैं कि रिश्वत भी नियम से लेना, तो वह नियम तुझे मोक्ष में ले जाएगा। रिश्वत बाधक नहीं है, अनियम बाधक है।

प्रश्नकर्ता: अनीति करना तो गलत ही कहलाएगा न?

दादाश्री: वैसे तो उसे गलत ही कहते हैं न! लेकिन भगवान के घर तो अलग ही तरह की परिभाषा है। भगवान के यहाँ तो नीति या अनीति, इसका झगड़ा ही नहीं है। वहाँ पर तो अहंकार की ही तकलीफ़ है। नीति पालनेवालों में अहंकार बहुत होता है। उसे तो बगैर मदिरा के कैफ़ चढ़ा हुआ होता है।

प्रश्नकर्ता: अब रिश्वत में पाँच सौ लेने की छूट दी तो फिर जैसे-जैसे ज़रूरत बढ़ती जाए तो फिर वह रकम भी अधिक ले तो?

दादाश्री: नहीं, वह तो एक ही नियम, पाँच सौ यानी पाँच सौ ही, फिर उस नियम में ही रहना होगा।

इस समय में कोई इन सब मुश्किलों में कैसे दिन गुज़ारे? और फिर उसकी रुपयों की कमी पूरी नहीं होगी तो क्या होगा? उलझन पैदा होगी कि रुपये कम पड़ रहे हैं, वे कहाँ से लाएँ? यह तो उसे जितनी कमी थी उतने आ गए। उसकी भी पज़ल फिर सोल्व हो गई न? वर्ना इसमें से इन्सान उल्टा रास्ता चुनकर उस पर चलने लगेगा और फिर पूरी रिश्वत लेने लेगागा। उसके बजाय यह बीच का रास्ता निकाला है। वह अनीति करे फिर भी नीति कहलाए और उसे भी सरलता हो गई कि यह नीति कहलाती है और उसका घर भी चले।

मूलत: वास्तव में मैं क्या कहना चाहता हूँ, वह यदि समझ में आ जाए तो कल्याण हो जाए। प्रत्येक वाक्य में मैं क्या कहना चाहता हूँ, वह पूरी बात यदि समझी जाए तो कल्याण हो जाए। लेकिन यदि वह वह बात को खुद की भाषा में ले जाए तो क्या होगा? प्रत्येक की अपनी स्वतंत्र भाषा होती ही है, वह ले जाकर खुद की भाषा में फिट कर देता है, लेकिन यह उसकी समझ में नहीं आएगा कि ‘नियम से अनीति कर।’

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