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पहले कोई नेगेटिव होता है, बाद में वह पॉज़िटिव बन जाता है। इसके पीछे क्या कारण है?

करैक्ट पॉजिटिव पर आए, तब...

प्रश्नकर्ता: दादाजी, ऐसा है कि सारी ज़िंदगी नेगेटिव ही देखा हो इसलिए वह नेगेटिव ही उसके लिए फिर पॉजिटिव के समान हो जाता है, यही तकलीफ है न?

दादाश्री: नहीं। पॉजिटिव हो नहीं जाता है। वह सिर्फ पॉजिटिव मानता है। केवल बिलीफ़ ही है। बिलीफ़ यानी, उदाहरण के तौर पर, हमारे पास बैंक में दो लाख रुपये हैं ऐसा मानने से क्या बैंकवाले उसका स्वीकार कर लेंगे? ऑल धीज़ आर रोंग बिलीफ़्स। इसलिए इस रास्ते पर कभी कोई मनुष्य सुखी दिखाई नहीं देगा। यह रास्ता ही ऐसा उलटा है कि कोई मनुष्य सुखी नहीं हो सकता, चाहे प्रधानमंत्री हो, चाहे प्रेसिडन्ट ऑफ इन्डिया हो या राजा हो, सभी दु:खी। सुखी कब दिखाई दे कि खुद जब ‘राइट अन्डरस्टैन्डिग’ (सही समझ) पर आए, पॉजिटिव पर आ जाए। करैक्ट पॉजिटिव पर आ जाए। यह माना हुआ पॉजिटिव तो इनकरैक्ट है। यह तो गलत पॉजिटिव है, जहाँ नेगेटिव है वहाँ पॉजिटिव मानकर बैठ गए हैं। क्या ऐसा नहीं मान लिया है? क्या नाम है तेरा?

प्रश्नकर्ता: *चंदुभाई।

दादाश्री: क्या तू वास्तव में *चंदु है? क्या *चंदु तेरा नाम नहीं है?

प्रश्नकर्ता: मात्र नाम ही है।

दादाश्री: तब तू कौन है? माय नेम इज़ *चंदु, मतलब तू कौन? फलाँ का बेटा, इतनी ही समझदारी है न? तू *चंदु है, ऐसा करके कहाँ तक चलाता रहेगा?

प्रश्नकर्ता: सारी ज़िंदगी अँधेरे में ही चलते आए हैं। तो अब इस अँधेरे को कैसे उलिचा जाए?

दादाश्री: अनंत अवतार से अँधेरे में चलते आए हैं। भटकन, भटकन और भटकन, पॉजिटिव तो देखा ही नहीं है जीव ने। यदि पॉजिटिव देखे तो ठिकाने पर आ जाए।

प्रश्नकर्ता: पहचान ही खो चूकी है पॉजिटिव की।

दादाश्री: हाँ, पहचान खो चूकी है और पॉजिटिव को ही नेगेटिव मानते हैं। नेगेटिव को पॉजिटिव मानते हैं।

प्रश्नकर्ता: दुर्गंध का ही अनुभव किया है और सुगंध का तो ख्याल तक ही नहीं आया है।

दादाश्री: उसका भान ही कैसे होगा? इसलिए फिर हम उसे, ज्ञान देकर भान में लाते हैं। उसके बाद वह कहे कि, ‘हाँ, यह तो मैं नहीं हो सकता, यह *चंदुभाई वह मैं नहीं हो सकता।’

Reference: दादावाणी - Sep 2009 (Page #4 - Paragraph #17 & #18, Page #5 - Paragraph #1 to  #10)

पॉजिटिव पुरुषार्थ की राह

तू यदि कुछ कर सकता है तो तू क्या कर सकता है इसका रास्ता मैं तुझे बता सकता हूँ। जब तक तू पुरुष (आत्मस्वरूप) नहीं हुआ है तब तक पुरुषार्थ नहीं हो सकता। पुरुष और प्रकृति दोनों का विभाजन होने के बाद पुरुषार्थ शुरू होता है। तब तक मनुष्य कुछ नहीं कर सकता है। फिर भी वह क्या करता है यह मैं तुझे बतलाता हूँ। नहीं कर सकता फिर भी करता है।

मान ले कि तेरी एक आदमी के साथ तकरार हो गई, दूसरे के साथ भी ऐसा हुआ। फिर उस झगड़े से और अन्य पुस्तकें पढऩे पर तुझे ख्याल आया कि लड़ने में जोख़िम है और वह रास्ता अच्छा नहीं है। फिर तू तय करे कि, नहीं अब हमें लड़ना नहीं है। तब कोई कहे, ‘सामनेवाला मारे तो उस समय क्या करना?’ तब तू कहे, ‘समता रखना।’ समता रखना यह पुरुषार्थ कहलाए। जब तू ऐसा करे तो तू कुछ पुरुषार्थ करता है ऐसा कहा जाए। क्या यह बात स्वीकार हो सके ऐसी है? तेरी समझ में आए ऐसी बात है यह?

प्रश्नकर्ता: समझ गया।

दादाश्री: हाँ, और मान ले कि तुझे राह चलते एक बटुआ मिला। उस समय तुझे ऐसा विचार आए कि ‘यदि मेरा बटुआ खो गया हो तो मुझे कितना दु:ख होता?’ ऐसा विचार आने के बाद तू सोचने लगे कि ‘कब मुझे इस बटुए का मालिक मिले और मैं उसे यह बटुआ दे दूँ,’ वह तेरा पुरुषार्थ कहलाए। मतलब तू बात को इस प्रकार समझकर पकड़े तो तू पॉजिटिव पर आया कहलाए। मैं पॉजिटिव पर लाना चाहता हूँ। इस समय नेगेटिव को पॉजिटिव मानता है वह सब पुरुषार्थ नहीं है, लेकिन पॉजिटिव आना चाहिए। समझ में आया कि नहीं?

प्रश्नकर्ता: हाँ जी।

दादाश्री: पिता के साथ कभी कहा-सुनी हो जाए, उसमें गुनाह चाहे पिता का हो मगर उनके साथ कलह बढ़ाने पर अंत में क्या परिणाम आएगा? दोनों के रास्ते अलग हो जाएँगे। सेपरेट हो जाएँगे। उसके बजाय साथ रहने की ज़रूरत है। और अभी दूसरा मकान बना नहीं है, तब तक तो यहाँ रहना पड़ेगा न। ऐसे साथ रहने पर यदि वह कलह करते हों तो हमें शांति रखनी चाहिए, समता रखनी चाहिए। वह पुरुषार्थ कहलाए या नहीं कहलाए?

प्रश्नकर्ता: कहलाए।

दादाश्री: इस प्रकार समता रखनी है। समता का अर्थ क्या है? कि वह कलह करते हों और हमें मन में क्लेश हो वह समता नहीं है। वह जबानी क्लेश करते हों और हमारा मन खराब नहीं हो उसे समता कहते हैं। उसे ही समता कह सकें न?

प्रश्नकर्ता: हाँ, वही समता कहलाए।

दादाश्री: मैं तुझे इस प्रकार पॉजिटिव पर ले जाना चाहता हूँ। नेगेटिव पर ले जाएँ तो मनुष्य खतम हो जाए।

*चंदुभाई = जब भी दादाश्री ' चंदुभाई' या फिर किसी व्यक्ति के नाम का प्रयोग करते हैं, तब वाचक, यथार्थ समझ के लिए, अपने नाम को वहाँ पर डाल दें।  

Reference: दादावाणी - Sep 2009 (Page #5 - Paragraph #19, Page #6 - Paragraph# 1 to #9)

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