अक्रम विज्ञान, एक ऐसा आध्यात्मिक विज्ञान है जो व्यवहार में उपयोगी है और मोक्ष प्राप्ति के लिए एक ‘शार्टकट’ रास्ता है।
अधिक पढ़ें11 दिसम्बर |
10 दिसम्बर | to | 12 दिसम्बर |
दादा भगवान फाउन्डेशन प्रचार करता हैं, अक्रम विज्ञान के आध्यात्मिक विज्ञान का – आत्मसाक्षात्कार के विज्ञान का। जो परम पूज्य दादा भगवान द्वारा बताया गया है।
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जितना माइन्ड ओपन (खुला मन) रखे उतना समझे कहलाए। माइन्ड जितना ओपन हुआ उतनी समझदारी कहलाए। कम समझदारीवाला संकुचित होता जाए। जिसका माइन्ड संकुचित होगा वह कहेगा कि ‘मैं समझता हूँ मगर वह मनुष्य कुछ भी नहीं समझता।’ लेकिन जिसका ओपन माइन्ड होता है न, वह समझा कहलाए।
जितना ओपन माइन्ड, उतनी वह ऊँची वस्तु कहलाए। खुद का माइन्ड कैसा है यह समझना चाहिए। हमें (कषायरूपी) ठोकर नहीं लगे और हमारा ओपन माइन्ड रहे तो समझना कि हमने कैसा ओपन माइन्ड रखा है। यह मैं तुझे क्यों बताता हूँ? इस समय तेरा मन संकुचित हो गया है। भविष्य में ऐसा संकुचित रहा तो सब बंद हो जाएगा। फिर अंदर कोई अच्छी वस्तु डालना चाहेंगे तो घुसेगी नहीं न? इसलिए माइन्ड ओपन कर देना। फिर भी वह एकदम से ओपन नहीं रहेगा। क्योंकि अंदरवाले क्या करेंगे?
प्रश्नकर्ता: उछलेंगे।
दादाश्री: अंदरवाले तुझे कहेंगे कि ‘क्या सुनने जैसा है?’ तब उन्हें हमें कहना है, ‘यहाँ चुप बैठिए।’ अंदरवाले तुझसे अलग हैं। वे सभी ‘क’वाले हैं। क्या नाम है उन ‘क’वालों का? अंदर क्रोधक है जो क्रोध करवाता है। लोभक है जो लोभ करवाता है। चेतक है जो चेतावनी देनेवाला है। भावक है जो भाव करानेवाला है। अंदर होंगे न यह सारे?
प्रश्नकर्ता: होते हैं, हरएक में होते ही हैं।
दादाश्री: वे सभी होते ही हैं, इसलिए उन सभी से चेतना है। उनको निकालते-निकालते तो मेरा दम निकल गया था। कितना समय गुज़रने के बाद निकले थे, वे उपवंशीय हैं। वे खुद की वंशावली का माल नहीं हैं। बाहर से आकर घुस गए हैं। लोग जानते तक नहीं है कि खुद के अंदर से कौन बोल रहा है। खुद को कार्य करना हो और अंदर से किसी और प्रकार की ही सलाह मिले तो क्या हम नहीं समझ जाएँ कि यह कोई तीसरा है? क्या ऐसा नहीं होता है? ऐसा तेरे अनुभव में आया है?
प्रश्नकर्ता: होता ही है!
दादाश्री: वह अंदर तीसरी जाति है इसलिए तुझे सावधान किया। मैंने तेरा मन बहुत संकुचित देखा। ऐसा संकुचित नहीं रखते। वर्ना इतनी बड़ी फिलासफ़ी कैसे समझ पाओगे? माइन्ड ओपन रखें। किसी की भी सुन लेना एकबार। सुनने के बाद हमें ठीक नहीं लगे तो छोड़ देना और ठीक लगे तो भी बहुत गहराई में मत जाना। हमें जिसके पाँच वाक्य पसंद आए हों उसका छठा वाक्य अंदर लिख लेना। उतना थोड़ा-बहुत विश्वास तो रखना पड़े कि नहीं?
जैसे कि, अभी पंद्रह दिन पहले किसी जगह पर एक स्टीमर डूब गया हो और फिर व्यापार हेतु आज आपको वहाँ पर जाना पड़े, तो स्टीमर में बैठते समय आपको अंदर क्या होगा? घबराहट हो जाएगी। अंदर से आवाज़ आएगी कि ‘यदि यह डूब गया तो?’ तब आप क्या कहेंगे?
प्रश्नकर्ता: वैसे हम किसी के बारे में अभिप्राय नहीं दे सकते लेकिन यदि ओपन माइन्ड रहा तो अभिप्राय दे सकते हैं, ऐसा आपने बताया। मतलब, ओपन माइन्ड अर्थात् आप क्या कहना चाहते हैं?
दादाश्री: ‘इतना मुझसे होगा और इतना नहीं होगा’, अंदर ऐसा रहे तो वे सभी संकुचित माइन्ड है। ओपन माइन्ड अर्थात्, नेगेटिव वह नेगेटिव और पॉजिटिव वह पॉजिटिव, ऐसे दोनों को समझे और पॉजिटिव में रहे ताकि नेगेटिव आए ही नहीं। और संकुचित माइन्ड मतलब नेगेटिव में रहना। वहाँ फिर पॉजिटिव नहीं आता। ओपन माइन्डवाले मनुष्य कम होते हैं। आप चाहे किसी भी धर्म की बात करें, कैसी भी बात करें, तब भी उसे भीतर कोई असर नहीं होता, तब वह ओपन माइन्ड कहलाए, वर्ना तो संकुचितता है।
मन शंकाशील होने के कारण उलटा दिखाई देता है। मन शंकाशील हो तो उसे शुद्ध करना पड़े। किंतु यह सच्ची बात लोगों के हाथ नहीं लगती।
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