सम्यक् दृष्टि से नुकसान में भी मुनाफ़ा
महावीर भगवान ने अपने शिष्यों को सिखलाया था कि आप जब बाहर जाएँ और लोग कभी लाठी से प्रहार करें तो हमें समझना है कि केवल लाठी से प्रहार ही किया है न! हाथ तो नहीं तोड़ा है न! इतनी तो बचत हुई। अर्थात् इसे फ़ायदा समझना। किसी ने एक हाथ तोड़ दिया तो समझना कि दूसरा तो नहीं तोड़ा न! दोनों हाथ यदि काट डालें तब कहना कि दोनों पैर तो बच गए न? दो हाथ और दो पैर काट डालें तो कहना कि मैं जीवित तो हूँ अभी। आँखों से दिखाई तो देता है अभी। भगवान ने लाभालाभ दिखलाया। तू रोना नहीं, हसता रहे, आनंद में रहे। बात गलत है क्या?
भगवान ने सम्यक् द्रष्टि से देखा, ताकि नुकसान में भी नफा दिखाई दे।
हमें कोई गालियाँ दें तो सुन लेना। हमें नेगेटिव नहीं, पॉजिटिव लेना है। नेगेटिव तो जगत् में है ही।
Reference: दादावाणी - Sep 2009 (Page #24 - Paragraph #4 to #6)
दु:ख का कारण, नासमझी
कुछ लोगों को दो हजार गँवाने पर भी कोई असर नहीं होता, ऐसा होता है या नहीं होता? कोई दु:ख उदयकर्म के अधीन होता नहीं है। सारे दु:ख हमारी अज्ञानता के हैं।
कुछ लोगों ने बीमा नहीं करवाया हो, फिर भी उनका गोडाउन जल जाए तब वे शांत रह सकते हैं, अंदर से भी शांत और बाहर भी शांत, दोनों तरह से शांत। और कुछ लोग तो अंदर भी दु:खी और बाहर भी दु:ख दिखलाएँ। वह सब अज्ञानता और नासमझी। वह गोडाउन तो सुलगनेवाला ही था। उसमें नया है ही नहीं। फिर तू सिर पटक-पटककर मर जाए तब भी उसमें फेरफार होनेवाला नहीं है।
प्रश्नकर्ता: मतलब किसी भी वस्तु के परिणाम को अच्छी तरह लेना चाहिए, ऐसा।
दादाश्री: हाँ, पॉज़िटिव लेना, मगर वह तो ‘ज्ञान’ होने पर पॉज़िटिव ले सके, नहीं तो फिर बुद्धि तो नेगेटिव ही दिखाए। यह सारा जगत् दु:खी है। मछली छटपटाए ऐसे छटपटा रहा है। इसे जीवन कैसे कहा जाए?
Reference: दादावाणी - Feb 2010 (Page #7 - Paragraph #11 & #12, Page #8 - Paragraph #1 to #3)
दु:ख खड़े हैं नेगेटिव रुख़ से
प्रश्नकर्ता: किसी भी वस्तु के परिणाम को अच्छी तरह से लेना वह मन की भूमिका नहीं कहलाए?
दादाश्री: पॉजिटिव लेना वह मन की भूमिका है। किंतु यदि ज्ञान रहा तभी वह पॉजिटिव लेगा न, वर्ना नेगेटिव ही देखेगा। यह सारा जगत् दु:खी है। मछली की तरह छटपटा रहा है। घर है, पैसा है, सबकुछ होने के बावजूद छटपटा रहा है। इसलिए समझना ज़रूरी है।
जीवन जीने की कला जानने की ज़रूरत है। जीवन जीने की कला तो होती ही है न। मोक्ष कुछ सभी का नहीं हो जाता मगर जीवन जीने की कला तो होनी चाहिए न। मोह भले ही करें किंतु मोह से ऊपर जीवन जीने की कला तो जानिए, कि कैसे जीवन जीना है। लोग सुख के लिए भटकते हैं, तब क्या सुख में क्लेश होता है? क्लेश तो उलटे सुख में भी दु:ख लाता है। भटकते हैं सुख के लिए और लाते हैं दु:ख। यदि जीवन जीने की कला आती, तो भी दु:ख नहीं लाते, और यदि दु:ख रहा होता तो उसे बाहर निकाल देते।
Reference: दादावाणी - Sep 2009 (Page #17 - Paragraph #6 & #9)
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