नेगेटिव को उड़ा दीजिए पॉजिटिव से
प्रश्नकर्ता: यदि पॉजिटिव विचार करे कि ‘मेरा अच्छा ही होनेवाला है, मुझे ऐसा होना है’ ऐसे पॉजिटिव विचार करने पर अच्छा ही होगा न!
दादाश्री: हाँ, उसमें हर्ज नहीं है। मगर वह नेगेटिव शब्द जो है उसे खिसकाकर फिर बाद में पॉजिटिव विचार करना। वर्ना एक ओर नेगेटिव शब्द का दबाव बढ़ता जाए और पॉजिटिव शब्द की वृद्धि होती जाए, दोनों का मेल नहीं हो सकता इसलिए पहले नेगेटिव शब्द की कमी कर देनी चाहिए। वह शब्द ही उड़ा देना चाहिए।
पैंतीस साल की उम्र में कोई कहे कि, ‘मुझे आँखों से कम दिखाई देता है।’ कम दिखाई देता है? अरे! क्या आँख के पर्याय नहीं बदलते? क्या सदा के लिए आँख के वही पर्याय (कम दिखाई देता है वही) रखने है तुझे? मैंने कहा कि ऐसा बोल कि, ‘मुझे आँखों से अच्छा दिखाई देता है।’
प्रश्नकर्ता: आँख से अच्छा दिखता है।
दादाश्री: लोग बढ़ा-चढ़ाकर बोलते हैं। आँख को अच्छी कहने पर आँख अच्छी तरह देखने लगे फिर। आज मुझे चौहत्तर साल हुए हैं मगर क्या मैं कभी बयालीस का रहा होऊँगा या नहीं? लेकिन लोग ऐसा कहते हैं कि ‘बयालीस का हुआ इसलिए मैं अख़बार नहीं पढ़ पाता।’ अख़बार में बारीक अक्षर आते हैं न, लोगों से सुना था कि बयालीस साल होने पर आँखों में नंबर आ जाते हैं। तब मैंने भी नंबर निकलवाए और चश्मा ले आया और साल-डेढ़ साल पहना। फिर एक दिन घर पर एक शख्स आया। मैंने अपना चश्मा बाजू पर रखा था, उसे लेकर देखने लगा और कहे, ‘मैं ज़रा अख़बार पढूँ?’ मैंने कहा, ‘पढिए।’ वह मेरा चश्मा पहनकर पढऩे लगा और मुझसे कहा, ‘अरे, आपके इस चश्मे से तो मुझे अच्छा दिखाई देता है।’ इस पर मैंने कहा, ‘ले जाइए और अब वापस नहीं लौटाना।’ फिर मैंने बिना चश्मे के पढऩा शुरू किया तो मुझे दिखने लगा। बारीक अक्षर सारे दिखाई दिए। आज भी बारीक अक्षर पढ़ सकता हूँ। दिन में तो हरकोई पढ़ सके, लेकिन मैं तो शाम को भी पढ़ता हूँ। यानी हमें क्या बोलना चाहिए?
प्रश्नकर्ता: ‘अच्छा है’ ऐसा पॉजिटिव बोलना है।
दादाश्री: यदि मुँह से नेगेटिव शब्द निकल जाए तो तुरंत उसे बाजू पर रख दीजिए। आप उसे बाजू पर रख दीजिए या फिर उसे ‘दादा’ के पास भेज दीजिए (तो उसका फल आपको नहीं भुगतना पड़ेगा)। वर्ना उसका मूल मालिक नहीं मिलने पर वह नेगेटिविटी वहाँ खुद के पास ही पड़ी रहती है।
Reference: दादावाणी - Sep 2009 (Page #15 - Paragraph #3 to #10)
जैसा चिंतन वैसा परिणाम
प्रश्नकर्ता: पॉजिटिव दृष्टि को लेकर दादाजी इस उम्र में भी एकदम यंग (युवा) दिखाई देते हैं।
दादाश्री: सब रोज़ ऐसा कहते हैं। इसलिए मैं भी फिर आइने में देखता हूँ कि कैसे दिखाई देते हैं? मुझे भी यंग दिखते हैं। सबके कहने का असर तो होगा न अंदर। मगर मैं कभी ऐसा नहीं बोलूँ कि ‘मैं बूढ़ा हूँ’, क्योंकि ‘मैं तो शुद्धात्मा हूँ’, बूढ़ी तो यह देह होगी। वह भी बोलेगी नहीं। ‘हमें’ पूछे बगैर कैसे बोलेगी? व्यवहार में कहना पड़े कि, ‘अरे, वृद्ध जो ठहरे।’ लेकिन ‘मैं बूढ़ा हूँ’ ऐसा नहीं बोल सकते। क्योंकि ‘मैं तो शुद्धात्मा हूँ’ इसलिए हमारे हिसाब सब अलग तरह के होते हैं। ‘मैं शुद्धात्मा हूँ’ होकर यदि ‘मैं बूढ़ा हूँ’ कहा तो सचमूच ऐसे हो जाएँगे। अर्थात् आप जब कहें कि, ‘मैं बूढ़ा हुआ’ तो वह आप अपने लिए नहीं बोलते हैं, आप अंदरूनी तौर पर समझते हैं कि ‘मैं जुदा हूँ’ और जो बोला जाता है वह तो ‘*चंदुभाई’ के लिए बोला जाता है। इसलिए आपको असर नहीं होता। सब इफेक्टिव है। इस संसार में जो भी शब्द बोला जाए वह सब इफेक्टिव है।
‘*चंदुभाई’ कहे कि, ‘मेरी तबियत बिगड़ी है’ तो हम अंदरूनी तौर पर समझें कि वह ‘*चंदुभाई’ की तबियत बिगड़ी है, मगर ‘मेरी’ नहीं।
प्रश्नकर्ता: हाँ दादाजी। ऐसा *चंदुभाई के लिए कहना है। और तबियत अच्छी है ऐसा हमें पॉजिटिव बोलना है।
दादाश्री: मतलब, ‘तबियत अच्छी है’ ऐसा कहिए। *चंदुभाई कहे कि, ‘मेरी तबियत खराब है।’ तब हम कहें कि, ‘नहीं, अच्छी है।’ उसमें कोई लंबी बात नहीं है मगर उन्हें शांति रहेगी। और यदि आप खुद ही कहें कि ‘मेरी तबियत अच्छी है’, तो अच्छी हो जाए। आप खुद ही कहें कि ‘मेरी तबियत खराब है’, तो खराब हो जाए। अर्थात् जैसा चिंतन करे वैसी वह हो जाए।
अच्छी वस्तु को उलटी बोलने से बिगड़ जाए और उलटी वस्तु को अच्छी बोलने से सुधर जाती है।
*चंदुभाई = जब भी दादाश्री 'चंदुभाई' या फिर किसी व्यक्ति के नाम का प्रयोग करते हैं, तब वाचक, यथार्थ समझ के लिए, अपने नाम को वहाँ पर डाल दें।
Reference: दादावाणी - Sep 2009 (Page #16 - Paragraph #10 & #11, Page #17 - Paragraph #1 to #5)
नेगेटिव की कितनी बड़ी जोख़िमदारी!
न्याय-अन्याय देखनेवाला तो अनेक व्यक्तिओं को गालियाँ देगा। न्याय-अन्याय देखने जैसा नहीं है। न्याय-अन्याय तो जगत् के लिए एक थर्मामीटर के समान है, यह जानने के लिए कि किस को कितना बुख़ार चढ़ा है और कितना उतर गया है। जगत् कभी न्यायी होनेवाला नहीं है और कभी अन्यायी भी नहीं होगा। यही की यही मिलावटी खीचडी चलती ही रहेगी।
यह जगत् जब से है तब से ऐसा ही है। सत्युग में ज़रा कम बिगड़ा हुआ वातावरण होता है और आज उसका ज्यादा असर है। रामचंद्रजी के समय में भी सीताजी का हरण करनेवाले थे, तो आज क्या नहीं होंगे? यह चलता ही रहेगा। यह मशीनरी पहले से ऐसी ही है। लोगों की समझ में आता नहीं है, अपनी जिम्मेदारिओं का भान नहीं है, इसलिए गैरजिम्मेदार होकर बोलना नहीं, गैरजिम्मेदार वर्तन करना नहीं और सब पॉजिटिव लेना। किसी का भला करना चाहो तो करना। किंतु बुरे में मत पड़ना और बुरा मत सोचना। किसी का बुरा सुनना तक नहीं, बहुत जोख़िमदारी है। इतने बड़े जगत् में, मोक्ष तो खुद के भीतर ही पड़ा है, किंतु मिलता नहीं है! और न जाने कितने ही जन्मों से भटक-भटक करते हैं!
‘पॉजिटिव’ लाने हेतु ‘पॉजिटिव’ रास्ता
पॉजिटिव यानी क्या? कुछ निकालना नहीं है, कुछ खिसकाना नहीं है, केवल लाना है।
जैसे कि, तेल का एक पीपा भरा हो, और कोई कहे कि ‘इसमें से तेल निकाल लीजिए और खाली कर दीजिए।’ हम पूछें कि ‘अंदर क्या भरना है?’ तब वह कहे ‘पानी।’ तब हम उसे कहेंगे कि अंदर पानी डालना शुरू कर दे, तेल अपने आप खाली हो जाएगा। या फिर उस पीपे में गेहूँ डालने हों या अन्य कुछ डालना हो, तो डालना शुरू करें, इससे सारा तेल निकल जाएगा। खाली करना और फिर भरना, उसके बजाय अंदर डालना शुरू कीजिए न ताकि अंदर का सब निकल जाएगा। गेहूँ और पानी, वह सारे बुद्धि के खेल की वज़ह से दिखाई देता है। मगर यहाँ तो हल इस प्रकार है कि अंदर पॉजिटिव डालिए इसलिए वह नेगेटिव अपनी जगह छोड़कर बाहर निकल जाएगा। अर्थात्, जो जगह छोड़कर बाहर निकल जाए ऐसा है, उसे लोग निकाल-निकाल करते हैं, उलिच-उलिच करते हैं। अज्ञान को उलिचें तो कब अंत आएगा? अज्ञान को प्याले से उलिचना चाहें तो कब उजाला होगा? कब सुबह होगी? उसके बजाय सीधे उजाला ही कर दीजिए न!
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