अक्रम विज्ञान, एक ऐसा आध्यात्मिक विज्ञान है जो व्यवहार में उपयोगी है और मोक्ष प्राप्ति के लिए एक ‘शार्टकट’ रास्ता है।
अधिक पढ़ें05 जून |
दादा भगवान फाउन्डेशन प्रचार करता हैं, अक्रम विज्ञान के आध्यात्मिक विज्ञान का – आत्मसाक्षात्कार के विज्ञान का। जो परम पूज्य दादा भगवान द्वारा बताया गया है।
अधिक पढ़ेंअहमदाबाद से २० की.मी. की दूरी पर सीमंधर सिटी, एक आध्यात्मिक प्रगति की जगह है| जो "एक स्वच्छ, हरा और पवित्र शहर" जाना जाता है|
अधिक पढ़ेंअक्रम विज्ञानी, परम पूज्य दादा भगवान, द्वारा प्रेरित एक अनोखा निष्पक्षपाति त्रिमंदिर।
भूतकाल गॉन, भविष्य परसत्ता...
प्रश्नकर्ता: वर्तमान में एक्ज़ेक्टली कैसे रहे, उसका उदाहरण देकर समझाइए।
दादाश्री: अभी आप किसमें हो? कुसंग में हो या सत्संग में हो? होटल में हो या शेयर बाज़ार में उसका पता नहीं चलता आपको? कौन से बाज़ार में हो?
प्रश्नकर्ता: सत्संग में हूँ।
दादाश्री: सत्संग में हो। अत: अभी आप वर्तमान में रह रहे हो। चार दिन पहले आपके छ:सौ रुपये खो गए हों, और वह याद आए तो वह भूतकाल बन गया। उसे यहाँ वर्तमान में याद करो, तो भूतकाल को खींच लाए । और यहाँ आने में अड़चन पड़ी हो , तो सोचते हैं कि कहीं अड़चन आएगी, अब तो ऐसा करना है, वैसा करना है, यहाँ वर्तमान में बैठे-बैठे भविष्य काल के विचार करें, तो वह भविष्य काल कहलाता है। वर्तमान में रहने को कहते हैं। क्या गलत कहते हैं? समझ में आगया सब?
प्रश्नकर्ता: अब समझ में आ गया।
दादाश्री: पिछले साल बेटा मर गया हो और वह सत्संग में याद आए तो वह मन का स्वभाव है, वह दिखाता है, तब खुद भूतकाल में खो जाता है। बाकी यू ही खो जाए ऐसा इंसान नहीं है। कोई कहनेवाला होना चाहिए। कोई दखलंदाज़ी करनेवाला हो तो तुरंत मन भीतर चिल्लाता है, मन दिखाता है, ‘लडक़ा मर गया है न! मेरा बेटा...’ ‘अब वह तो हो गया, हमें इससे क्या लेना-देना? यहाँ क्यों लेकर आया इस फाइल को, ऑफिस की फाइल को यहाँ क्यों ले आया?डाँटकर निकाल देना।
इस तरह से विभाजन करना नहीं आए तो क्या हो सकता है? रसोईघर में भी ‘बेटा मर गया’ ऐसा लगता है, तब फिर हें... रस-पूड़ी हो न, तब भी सुख चला जाता है न?
प्रश्नकर्ता: चला जाता है।
दादाश्री: उस घड़ी बेटे का विचार आए तो गेट आउट , ऑफिस में आना, ऐसा नहीं कह सकते?
प्रश्नकर्ता: हाँ, कह सकते हैं न।
दादाश्री: ऐसा क्यों आया, ऐसे कहना चाहिए। वे आपके बुलाने से आए हैं, लेकिन आपको कहना है कि ‘यहाँ पर नहीं, कम इन द ऑफिस।’ और रस-रोटी खाते समय याद आया कि वहाँ पर जात्रा में जाना है, वहाँ मेरा खाने का ठिकाना नहीं पड़ेगा! अरे भाई, अभी क्यों आया? ऐसा विचार आता है भीतर, नहीं आता?
प्रश्नकर्ता: आता है।
दादाश्री: तब फिर आपको क्या कहना है? कि ‘यहाँ से गेट आउट। वहाँ जो होना होगा, तब देख लेगें हम। ऑन द मोमेन्ट,’ कह देना।
न करो अप्राप्त की चिंता
अहमदाबाद के कुछ सेठ मिले थे। मेरे साथ भोजन लेने बैठे थे। तब सेठानी सामने आकर बैठीं। मैं ने पूछा, ‘सेठानीजी, आप क्यों सामने आकर बैठीं?’ तो बोली, ‘सेठजी ठीक से भोजन नहीं करते हैं, एक दिन भी।’ भोजन करते समय मिल में गये होते हैं, इससे मैं समझ गया। जब मैं ने सेठजी को टोका तो बोले, ‘मेरा चित्त सारा वहाँ (मिल में) चला जाता है।’ मैं ने कहा, ‘ऐसा मत करना। वर्तमान में थाली आई उसे पहले, अर्थात प्राप्त को भुगतो, अप्राप्त की चिंता मत करो। जो प्राप्त वर्तमान है उसे भुगतो।
चिंता होती हो तो फिर भोजन लेने रसोईघर में जाना पड़े? फिर बेडरुम में सोने जाना पड़े? और ऑफिस में काम पर...
प्रश्नकर्ता: वो भी जाते हैं।
दादाश्री: वे सारे डिपार्टमेन्ट है। तो इस एक ही डिपार्टमेन्ट की उपाधि हो, उसे दूसरे डिपार्टमेन्ट में मत ले जाना। एक डिवीजन मे जायें तो वहाँ जो हो वह सब कामपूर्णतया कर लेना। पर दूसरे डिविजन में भोजन करने गये, तो पहले डिविजन की उपाधि वहीं छोड़कर, वहाँ भोजन लेने बैठें तो स्वाद से भोजन करना। बेडरुम में जाने पर भी पहलेवाली उपाधि वहीं की वहीं रखना। ऐसा आयोजन नहीं होगा, वह मनुष्य मारा जायेगा। खाने बैठा हो तब चिंता करे कि ऑफिस में साहब डाँटेंगे तब क्या करेंगे? अरे, डाँटेंगे तब देख लेंगे, अभी चैन से भोजन ले न!
भगवान ने क्या कहा था कि, ‘प्राप्त को भुगतो, अप्राप्त की चिंता मत करो।’ अर्थात क्या कि, ‘जो प्राप्त है उसे भुगतो!’
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