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भगवान की भाषा क्या है?

भगवान न्याय स्वरूप नहीं है और भगवान अन्याय स्वरूप भी नहीं है। किसी को दुःख नहीं हो, वही भगवान की भाषा है। न्याय-अन्याय तो लोकभाषा है।

चोर, चोरी करने को धर्म मानता है, दानी, दान देने को धर्म मानता है। वह लोकभाषा है, भगवान की भाषा नहीं है। भगवान के वहाँ ऐसा वैसा कुछ है ही नहीं। भगवान के वहाँ तो इतना ही है कि, 'किसी जीव को दुःख नहीं हो, वही हमारी आज्ञा है!'

न्याय-अन्याय तो कुदरत ही देखती है। बाकी, यहाँ जो जगत् का न्याय-अन्याय है, वह दुश्मनों को, गुनहगारों को हेल्प करता है। कहेंगे, 'होगा बेचारा, जाने दो न!' तब गुनहगार भी छूट जाता है। 'ऐसा ही होता है' कहेंगे। बाकी, कुदरत का न्याय, उसमें तो कोई चारा ही नहीं है। उसमें किसी की नहीं चलती!

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