ऋषि मुनियो में लडाई-झगडे कुछ नहीं होते थे, सिर्फ मित्रता। वे अपनी पत्नी के साथ मित्र की तरह रहते थे और पुत्र-पुत्री का लालन-पालन करते थे। और इनके लिए तो हमेश् विषय ही। अब हमेशा रहने वाले विषय में क्या झझंट होता है ? कि एक को भूख लगी है और दूसरे को नहीं। और जिसे नहीं लगी है,वह कहता है मुझे नहीं जमेगा। अब दूसरा कहेगा, मुझे भूख लगी है, चला लड़ाई-झगडा। ये लड़ाई-झगडे सारे विषय के कारण होते है। वर्ना जिदंगी भर मित्रता पूर्वक इतना सुंदर रहे! एक दूसरे के प्रति सिन्सीयर रहेंगे। पूरे दिन कोई क्लेश नहीं, किच-किच नहीं। सारी किच-किच विषय के कारण है।
ये स्त्री-पुरष के बीच विषय संबंध है न, उसमें दावे शुरू हो ही जाते हैं। क्योंकि विषय में दोनों की एक मालिकी है जबकि दोनों के मत अलग अलग। इसलिए अगर स्वतंत्र होना है तो इस गुनहगारी से बचना चाहिए और अनिवार्य हो तो उसका निकाल करना पडेगा।
जब तक आपमें विकारी संबंध है, तब तक यह लड़ाई-झगडे रहेंगे ही। हम जानते हैं कि जब विकार बंद हो जाऍंगे, तब उसके साथ झगडे बंद हो ही जाएँगे। दखल के कारण लड़ाई-झगडे हैं। उसके (पत्नी) साथ विषय बंद करने के अलावा अन्य कोई उपाय ही नहीं है।
क्योंकि इस जगत में राग-द्वेष का मूल कारण ही यह है, मौलिक कारण ही यह है। यहीं से सारा राग-द्वेष पैदा हुआ है। सारा संसार यहीं से शुरू हुआ है। अतः यदि संसार बंद करना हो तो यहीं से बंद करना पडेगा। फिर भले ही आम खाओ, जो अच्छा लगे वह खाओ न। कोई पूछने वाला नहीं है। क्योंकि आम आपके विरुद्ध दावा नहीं करेगें। आप उन्हें नहीं खाओगे तो, वे कोई कलह नहीं करेंगे जबकि स्त्री-पुरुष के संबंध में तो यदि आप कहो कि ‘मुझे नहीं चाहिए’। तब वह कहेगी कि, ‘नहीं, मुझे तो चाहिए ही’।वह कहे कि ‘मुझे सिनेमा जाना है’। तब अगर आप नहीं जाओगे तो कलह ! जान पर बन आई समझो ! क्योंकि सामने मिश्रचेतन है और वह क़रार वाला है, इसलिए दावा करेगी !
दादाश्री : इस जगत् में लड़ाई-झगड़े कहाँ होते हैं? जहाँ आसक्ति होती है, वहीं पर। झगड़े सिर्फ कब तक होते हैं? जब तक विषय है, सिर्फ तभी तक! फिर ‘मेरी-तेरी’ करने लगता है। ‘यह तेरा बैग उठा ले यहाँ से, मेरे बैग में साड़ियाँ क्यों रखीं?’ ऐसे झगड़े, जब तक विषय में एक हैं, तभी तक रहते हैं और विषय छूटने के बाद उसके बैग में रखे तो भी हर्ज नहीं। ऐसे झगड़े नहीं होते न फिर? बाद में कोई झगड़ा नहीं न? कितने साल से ब्रह्मचर्यव्रत लिया है?
प्रश्नकर्ता : यों तो नौ साल हो गए।
दादाश्री : यानी उसके बाद कोई झगड़ा-वगड़ा नहीं, कोई झंझट ही नहीं, और गृहस्थी चलती रहती है!
प्रश्नकर्ता : चल ही रही है न, दादाजी।
दादाश्री : बेटियों की शादी की, बेटों की शादी हुई, सभी कुछ....
प्रश्नकर्ता : घर में भी नहीं होता अब कुछ भी....
दादाश्री : ऐसा? गृहस्थी अच्छी चले, ऐसा है यह विज्ञान! हाँ, बेटे-बेटियों की शादियाँ करवाता है। अंदर छूता नहीं, निर्लेप रहता है और दु:ख तो देखा ही नहीं है। चिंता-विंता देखी नहीं? बिल्कुल नहीं। नौ सालों से चिंता नहीं देखी न?
प्रश्नकर्ता : ऐसे तो बहुत मुसीबतें आती हैं, लेकिन छूती नहीं।
दादाश्री : आएँगी ज़रूर, वह तो ठीक है, गृहस्थी में है तो आएँगी तो सही। जितना स्पर्श नहीं करता, उतना ही फिर कुछ भी बाधक नहीं होता। सेफसाइड, सदा के लिए सेफसाइड। यहाँ बैठे ही मोक्ष हो गया, फिर अब बचा क्या?
प्रश्नकर्ता : मैं तो कहता हूँ कि यहीं पर मोक्ष का सुख बरतना चाहिए, तभी इसका मज़ा है!
दादाश्री : तभी। सच्चा मोक्ष यहीं बरतना चाहिए।
प्रश्नकर्ता : और यहाँ बरतता है इसीलिए कहते हैं न! अब देवलोक नहीं चाहिए, यह संसार नहीं चाहिए। सुख बरते उसके बाद और किसी झंझट में कहाँ पड़े!
दादाश्री : हाँ, और गाड़ी वहीं पर जा रही है। सूरत के स्टेशन पर भले ही थोड़ी देर खड़ी रहे, लेकिन बोम्बे सेन्ट्रल की तरफ ही जा रही है!
चलो बहुत अच्छा! मैं ऐसा पूछूँ और कोई मुझे अपने अनुभव कहे तो मुझे ज़रा लगे कि नहीं, मेरी मेहनत सफल हुई! मेहनत फले, ऐसी तो आशा रखें न?
जब से हीराबा के साथ मेरा विषय बंद हुआ होगा, तब से मैं उन्हें ‘हीराबा’ कहता हूँ। उसके बाद हमें कोई खास अड़चन नहीं आई। पहले जो थी वह विषय के साथ में, सोहबत में तो टकराव होता था थोड़ा-बहुत। लेकिन जब तक विषय का डंक है, तब तक टकराव नहीं जाता। जब वह डंक नहीं रहता, तब जाता है। हमारा खुद का अनुभव बता रहे हैं।
विज्ञान तो देखो! जगत् के साथ झगड़े ही बंद हो जाते हैं। पत्नी के साथ तो झगड़े नहीं, लेकिन सारे जगत् के साथ झगड़े बंद हो जाते हैं। यह विज्ञान ही ऐसा है और झगड़े बंद हुए यानी मुक्त हुआ।
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