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स्पर्धा यानि क्या? वह किस कारण से होती है?

स्पर्धा, एक रेसकोर्स!

परम पूज्य दादा भगवान स्पर्धा की तुलना रेसकोर्स, यानि कि घुड़दौड़ के साथ करते हैं। उनकी यहाँ जो बातें बताई है वह सभी को सोचने पर मजबूर कर दें ऐसी हैं!

प्रश्नकर्ता: जिसे प्राप्त हो चुका है, वह अधिक पाने के लिए और जिसे प्राप्त नहीं हुआ है, वह प्राप्त करने के लिए व्यग्र क्यों रहते हैं?

दादाश्री: क्या प्राप्त करने की बात है इसमें?

प्रश्नकर्ता: यह आर्थिक बात है। भौतिक बात है। जिन्हें भौतिक की प्राप्ति हो चुकी है, उन्हें अधिक प्राप्त करने की व्यग्रता रहती है और जिन्हें प्राप्ति नहीं हुई है, वे प्राप्त करने के लिए व्यग्र रहते हैं, वह किसलिए?

दादाश्री: लोगों को रेसकोर्स में उतरना है। रेसकोर्स में जो घोड़े दौड़ते हैं, उनमें से कौन से घोड़े को इनाम मिलता है?

प्रश्नकर्ता: पहले घोड़े को।

दादाश्री: तो आपके शहर में कौन सा घोड़ा पहले नंबर पर है? रेसकोर्स में जो प्रथम आया, उसमें किसका नाम है? यानी कि सभी धोड़े दौड़ते रहते हैं और हाँफ-हाँफकर मर गए लेकिन पहला नंबर किसी का भी नहीं लगता। और इस दुनिया में भी किसी का पहला नंबर नहीं लगा। ये तो बिना बात की दौड़ में पड़े हुए हैं! वे हाँफ-हाँफकर मर जाएँगे! और इनाम तो एक को ही मिलेगा! इसलिए इस दौड़ में पड़ने जैसा नहीं है। हमें हमारी ओर से शांतिपूर्वक काम करते जाना है। अपने सभी फ़र्ज़े पूरे करने हैं, लेकिन इस रेसकोर्स में पड़ने जैसा नहीं है। आपको इस रेसकोर्स में उतरना है?

प्रश्नकर्ता: जीवन में आए हैं तो रेसकोर्स में उतरना ही पड़ेगा न?

दादाश्री: तो दौड़ो, कौन मना करता है? जितना दौड़ा जा सके उतना दौड़ो! लेकिन हम आप से कह देते हैं कि फ़र्ज़ सही तरह से पूरे करना और शांतिपूर्वक पूरे करना। रात को ग्यारह बजे हम सब जगह पता लगाने जाएँ कि लोग सो गए हैं या नहीं सो गए? तब अगर पता चले कि लोग सो गए हैं तो आप भी ओढ़कर सो जाना और दौड़ना बंद कर देना। लोग सो गए हों और हम अकेले-अकेले बिना काम के भाग-दौड़ करते रहें, वह कैसा? यह क्या है? लोभ नाम का जो गुण है, वह सताता है।

तुलना से स्पर्धा

स्पर्धा हमेशा अपने साथ वालों के साथ होती है। मेसन हो उसे दूसरे मेसन के साथ, बढ़ई हो तो दूसरे बढ़इयों के साथ तुलना होती है। डॉक्टर को दूसरे डॉक्टर्स के साथ, इंजिनियर को दूसरे इंजिनीयर्स के साथ, विद्यार्थी को अपनी कक्षा के विद्यार्थियों के साथ तुलना होती है। अरे! गली में कुत्ता भी अगर उसके रास्ते में से भैंस जा रही हो तो कुछ नहीं करता, हाँथी जाए तो भी कुछ नहीं करता, लेकिन अगर दूसरा कुत्ता जाए तो भौंक-भौंक कर पूरी गली सिर पर उठा लेता है! इस तरह, स्पर्धा में दो समान व्यक्ति आमने-सामने आते हैं।

जिस तरह हाईवे के ऊपर ट्रैफिक में गाड़ियाँ जा रही हों, उसमें अपनी गाड़ी को कोई ओवेरटेक करके आगे जाए तो तुरंत मन में खटकता है कि वह मुझसे आगे निकल गया? बगल में से ट्रक जाए तो कुछ नहीं, साइकिल जाए तो भी कुछ नहीं, लेकिन अगर दूसरी गाड़ी हो तो हम तुरंत अपनी गाड़ी की स्पीड बढ़ाकर उसे ओवरटेक कर लेते हैं, तभी संतोष होता है कि मैं आगे बढ़ गया! लेकिन हमें यह विचार नहीं आता है कि इस रास्ते पर लाखों गाड़ियाँ हमसे आगे निकल गईं, वहाँ क्यों स्पर्धा नहीं हुई? हमसे पहले भी अनेक लोग सफल हो गए, उनके साथ क्यों स्पर्धा नहीं होती? लेकिन अगर कोई साथ आया, तो हमारी बुद्धि उल्टा दिखाती है की स्पर्धा जाग उठती है!

स्पर्धा की जड़ अहंकार

स्पर्धा में मुख्य भूमिका निभाने वाला अहंकार है। कुछ ना कुछ करने की क्रिया में होता ही है। मैं कुछ करूं, मैं कुछ आगे बढूँ, मैं कुछ बड़ा हो जाऊँ और ना हो पाए तो दूसरे लोगों के संपर्क से, देखादेखी से “दूसरों से ज्यादा मैं सफ़ल हो जाऊँ” ऐसा हो ही जाता है और स्पर्धा जन्म लेती है। अहंकार को ऊँचा आना है, सबसे बड़ा बनना है, विशेष होना है। दूसरे की काबिलियत ज़्यादा हो और खुद की कम हो तो खुद तुलना करके इतना दौड़ते हैं, इतना दौड़ते हैं कि फिर गिर जाते हैं। कहते हैं ना, “लंबे के साथ छोटा जाए, मरे नहीं, तो बीमार हो जाए!”

जब स्पर्धा में अहंकार पागल या बेलगाम हो जाता है, बुद्धि विपरीत हो जाती है तब वह भयंकर स्वरूप ले लेता है। बड़ी-बड़ी महासत्ताओं, उनके बीच की लड़ाईयाँ और तूफ़ान, सभी स्पर्धा से ही जन्में लेते हैं। जैसा कि महाभारत के युद्ध के पीछे राज्य और सत्ता प्राप्त करने की स्पर्धा थी। परिणामस्वरूप भीषण महायुद्ध हुआ और सैकड़ों लोग मारे गए।

स्पर्धा का विकृत स्वरूप

स्पर्धा में खुद आगे बढ़े उसमें कोई समस्या नहीं है, लेकिन जब समझ में आता है कि खुद में आगे बढ़ने की शक्ति नहीं है, तब दूसरे को तोड़कर, काटकर, गिराकर या दूसरों को रोककर खुद आगे बढ़ने जाता है। खुद में सुपीरियरटी के गुण हैं नहीं, तभी वह दूसरों की सुपीरियरटी को तोड़कर, उन्हें अपने से इन्फीरियर करने जाता है। “वह गिर जाए तो अच्छा, तभी मैं आगे आऊँगा!” ऐसी इच्छा हो, तभी खुद सुपीरियर बनेगा ना! खुद की लाइन (रेखा) लंबी नहीं है, तभी दूसरे की लाइन (रेखा) छोटी करके अपनी लंबी करने जाता है। उसमे से ईर्ष्या का जन्म होता है।

ईर्ष्या यानि जलन, जिसमें दूसरों की सफ़लता नहीं देख पाते। दूसरा ज़्यादा सफ़ल हो जाए, दूसरे के पास खुद से ज़्यादा कुछ हो या दूसरा व्यक्ति हमसे ज़्यादा ख़ुश हो वह सहन ना होना वही ईर्ष्या। ईर्ष्या वह स्पर्धा का विकृत रूप है।

जिसके लिए स्पर्धा होती है उस व्यक्ति की पीठ पीछे निंदा-चुगली होती है, उनके बारे में नेगेटिव चर्चाएँ  होती हैं, उनकी छोटी सी भूल का भी ढिंढोरा पीटा जाता है और ऐसा कदम उठाने में खुद को हिचकिचाहट नहीं होती।

परम पूज्य दादा भगवान कहते हैं, यह टीका तो अहंकार का मूल गुण है। स्पर्धा का गुण है। इसलिए यह तो रहेगा ही।“

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