
संसार व्यवहार में कहाँ स्पर्धा नहीं है? घर में, परिवार में, पैसा कमाने के लिए, नौकरी-बिजनेस में या समाज, देश और धर्म में भी स्पर्धा होती है।
स्पर्धा की शुरुआत बचपन से ही हो जाती है। बचपन में दो बच्चे एक खिलौने के लिए लड़ते हैं। दोनों को रहता है कि मुझे ज्यादा खिलौने मिलें, अच्छा वाला खिलौना मुझे मिले। बच्चों में स्कूल में पढ़ने के लिए या पहला नंबर लाने के लिए स्पर्धा होती है। नहीं तो माँ-बाप बच्चे से कहेंगे कि, ”तुम सातवां नंबर लाया? इसका पहला नंबर आया है, सीखो इससे कुछ!” बच्चे भी लगातार दूसरों के साथ तुलना होने के कारण घुटन महसूस करते हैं।
युवाओं में भी स्पर्धा होती है। वह कॉलेज में बाइक में या कार में आता है और मैं, साईकिल में या बस में। फिर सामने वाला भी मन में तय कर लेता है कि मैं भी बड़ा होकर कमाऊंगा और गाड़ी लूँगा! कुछ युवाओं में तो गलत स्पर्धा भी होती है। लड़के कहेंगे, मैंने इतनी गर्लफ्रेंड घुमाईं, तुम्हारी एक भी नहीं है? और लड़कियाँ भी कहेंगी, मैंने इतने बॉयफ्रेंड्स बनाए, तुम्हारा कोई बॉयफ्रेंड नहीं है?
शादी करके आती है तो पत्नी को देवरानी या जेठानी के साथ स्पर्धा होती है, कि कैसे घर में मेरा महत्व बढ़े! पत्नी को ऐसा ही लगता है कि मेरा बनाया हुआ खाना सबसे अच्छा। उसमें कोई पति आकर किसी दूसरे के रसोई की तारीफ़ करे तो कहती है, “जाइए, उनके ही घर, वही खिलाएँगी आपको!” फिर तो पति पर आ बनती है। पति घर में देवरानी या जेठानी को ज़्यादा महत्व दे तो पत्नी उनके जैसा बनने का प्रयत्न करने लगती है। पुरुषों में या भाई-भाई में भी पैसे कमाने के लिए स्पर्धा होती है। पिताजी बड़े बेटे को ज़्यादा महत्व देते हों, छोटे बेटे को कम दें तो छोटे बेटे को अंदर जलन होती है। मैं भी पिताजी को ख़ुश रखूँ, उनका फेवरेट बनूँ ऐसी स्पर्धा होती है।
सास-बहु में भी स्पर्धा चलती है। बहू खाना बनाए तो सास उसमे गलती निकालती है और कहती है, “ऐसा बनाती हो? मेरे बेटे को यह पसंद नहीं।” फिर बहू भी सामने ज़वाब देती है कि “मैं पांच साल से आपके बेटे को खिला रही हूँ, आप तो आज आए!” दोनों में रहन-सहन और तौर-तरीकों को लेकर एक-दूसरे के साथ स्पर्धा चलती ही रहती है। बाहर नहीं तो मन में खिट-पिट चलती ही रहती है।
पति-पत्नी में भी स्पर्धा होती है। पत्नी को लगता है कि घर तो मैं ही संभालती हूँ, पति को तो कुछ समझ में ही नहीं आता। कोई पूछता है तो पत्नी कहती है, “जाने दो ना! वह तो आलसी है, उसे व्यवहार निभाना आता ही नहीं। सब मुझे ही करना पड़ता है।” शादी के बाद पत्नी कहती है, “मेरे मायके में तो इतनी सारी गाड़ियाँ हैं, इतने नौकर हैं।” जबकि पति कहता है कि “हमारे परिवार के संस्कार बहुत ऊँचे हैं! कहीं भी देखने को नहीं मिलेंगे।” पत्नी पढ़ी-लिखी और होशियार हो, पति से ज्यादा कमाती हो तो पति से वह सहन नहीं होता और पत्नी का बात-बात पर अपमान कर देता है। जड़ में, इससे ज्यादा मैं सुपीरियर हूँ और वह मुझसे इन्फीरियर है यह साबित करना अहंकार को अच्छा लगता है। पति-पत्नी पार्टी में गए हों, वहाँ पत्नी मिलनसार हो, यानि सभी के साथ अच्छी तरह से घुल-मिल जाती हो और पति थोड़ा संकोची हो तो कोई उसे पूछता भी नहीं। इसलिए घर वापस लौटते समय पति कहता है, “तुम उसके साथ ऐसे हंसकर क्यों बोल रही थी?” किच-किच शुरू हो जाती है। पति भी किसी दूसरी लेडीज़ के साथ हँस-हँस कर बात कर रहा हो तो शक की वजह से पत्नी को जलन होती है।
परिवार में शादी-ब्याह में तो काफ़ी स्पर्धा देखने को मिलती है। उन्होंने तेरह करोड़ का खर्च किया, मैं इक्कीस करोड़ का खर्च करूँगा। मेहमानों को फॉरेन ले जाकर डेस्टिनेशन वेडिंग करूँगा। उन्होनें खाने में इक्यावन डिश रखी थी, मैं एक सौ एक रखूँगा। उनकी डिश की कीमत दो हजार की थी, तो मैं पांच हजार की रखूँगा। बाद में भले ही सारा खाना कूड़े में जाए। लेडिजों में भी ऐसा ही होता है कि उसने डेढ़ लाख की साड़ी पहनीं, मैं दो लाख की साड़ी पहनूँगी। देवरानी ने डेढ़ लाख का पर्स लिया, मैं ढाई लाख का लूँगी, वो भी ब्रांडेड! दिखावे में करोड़ों रुपये बर्बाद हो जाते हैं और अंत में गटर में जाते हैं।
राज्यों और देशों के बीच भी सत्ता, लश्कर, विकास और पैसों आदि को लेकर स्पर्धा चलती रहती है। एक देश में तीन एकड़ ज़मीन में एक सौ आठ मंजिल की बिल्डिंग बनी तो दूसरा देश ग्यारह एकड़ ज़मीन में उससे भी ऊँची बिल्डिंग बनवाएगा। लेकिन कोई देश लंबे समय तक महाशक्ति बनकर नहीं रहता।
नौकरी या बिज़नेस में पैसे कमाने के लिए स्पर्धा चलती ही रहती है। बिज़नेस में मिल मालिक हों तो उनमें स्पर्धा चलती है कि उसकी तो दो मिलें हैं, हमनें यह तीसरी नई डाल दी। उसके यहाँ दो हज़ार लोग काम करते हैं, हमारे यहाँ चार हज़ार हैं इसलिए हमारा बिज़नेस बड़ा! प्रोडक्शन में हमारी फैक्ट्री आगे है। साल का टर्न ओवर भी दूसरी कंपनियों से ज्यादा है। इसलिए इस बिज़नेस में हमारी कंपनी का पहला नंबर आएगा! लेकिन यह नंबर हमेशा नहीं रहता। आज एक कंपनी आगे हो, तो कुछ सालों बाद दूसरी कंपनी आगे आती है।
ऐसा नियम है कि एक जैसे बिज़नेस में या समान पोस्ट वाली नौकरी में स्पर्धा होती है। शेयर बाज़ार का धंधा करने वाले को शेयर बाज़ार वाले के साथ स्पर्धा होती है, लकड़हारे के साथ स्पर्धा नहीं होती। उसी तरह शिक्षक को शिक्षक के साथ स्पर्धा होती है, प्राइमिनिस्टर के साथ नहीं होती। इसलिए ख़ुद से बहुत आगे हो वहाँ स्पर्था नहीं होती और ख़ुद से पीछे हों वहाँ भी नहीं होती।
नौकरी में भी साथ में काम करने वालों के साथ स्पर्धा होती है। वैसे देखें तो नौकरी में प्रमोशन मिलने की आशा में ही सब आगे बढ़ते हैं। एक दुसरे को निचा गिराने में, बॉस को ख़ुश करने के लिए कितनी कोशिशें करते हैं तब जाकर प्रमोशन होता है। परम पूज्य दादा श्री कहते हैं, तनख्वाह में भी स्पर्धा होती है। दूसरे की तनख्वाह पच्चीस हज़ार हो और ख़ुद की साठ हज़ार हो तो ऐसा लगता है कि, “मेरी तनख्वाह तो साठ हज़ार है, इसकी पच्चीस हज़ार है, इसलिए मुझे दिक्कत नहीं है!” और हमारे साथ वाले की हमसे भी ज़्यादा तनख्वाह हो तो वहाँ लगता है, “हम दोनों एक जैसा काम करते हैं, तो भी उन्हें ज़्यादा तनख्वाह क्यों?” फिर स्पर्धा शुरू हो जाती है।
परम पूज्य दादाश्री ख़ुद कॉन्ट्रैक्ट का बिज़नेस करते थे। वो बिज़नेस में होने वाली स्पर्धा का निष्कर्ष निकालकर बैठे थे, जो हमें उनकी ही वाणी में यहाँ मिलता है।
दादाश्री: मैंने तो पैसों का हिसाब निकाला। मैंने सोचा, ‘हम पैसा बढ़ाते रहें तो कहाँ तक बढ़ेगा?’ फिर हिसाब लगाया कि इस दुनिया में किसी का पहला नंबर नहीं आया है। लोग कहते हैं कि ‘फोर्ड का पहला नंबर है’ लेकिन चार साल बाद किसी दूसरे का नाम सुनने को मिलता है। यानी, किसी का भी नंबर टिकता नहीं है, बेकार ही दौड़-भाग करते रहें, इसका क्या अर्थ है? पहले घोड़े पर इनाम होता है, दूसरे पर थोड़ा देते हैं और तीसरे को भी देते हैं। चौथे को तो झाग निकाल-निकालकर मर जाना है? मैंने कहा, ‘मैं क्यों इस रेसकोर्स में उतरूँ?’ ये लोग तो चौथा, पाँचवाँ, बारहवाँ और सौवाँ नंबर देंगे न? फिर, हम क्यों बेकार मेहनत करें? क्या फिर झाग नहीं निकलेगा? पहला आने के लिए दौड़े और आए बारहवें, फिर तो चाय भी नहीं पिलाते हैं। आपको क्या लगता है?
प्रश्नकर्ता: सही है।
दादाश्री: अर्थात् यह सारा गणित कर दिया था। दादा का गणित! बहुत सुंदर गणित है। यह मैथमैटिक्स इतना ज़्यादा सुंदर है। वह एक साहब तो कहते थे कि दादा का यह गणित तो जानने जैसा है।
दौड़, दौड़, दौड़, पर किसलिए? नंबर लगने वाला हो तो चलो चलते हैं! देह का जो होना होगा, वह होगा लेकिन यह तो नंबर भी नहीं और इनाम भी नहीं, कुछ भी नहीं और झाग ही झाग। किसी और जगह नहीं घिसा (दिया), इसी में दौड़, दौड़, दौड़! बल्कि सब जगह से नीरस हो गया, खाने में भी कोई रुचि नहीं रही!
कई बार धर्म में भी स्पर्धा पैर फैला लेती है। जैसे कि, मैंने इतने व्रत किए, मेरे इतने शिष्य हैं, मैंने इतने मंदिर बनवाए वगैरह। जिस क्रिया का हेतु बाह्य तप करके आंतरिक उपयोग को धर्म की तरफ़ मोड़ने का था, उसी क्रिया के लिए स्पर्धा करने से धर्म तो दूर, राग-द्वेष खड़े होते हैं। घर के दो बेटों का त्याग किया और धर्म में शिष्यों को ग्रहण किया, लेकिन कषाय तो चालू ही रहे!
एक गुरु के दो शिष्यों के बीच भी स्पर्धा होती है। गुरु एक शिष्य से ज़्यादा ख़ुश रहते हैं, तो दूसरे शिष्य का उसके ऊपर भाव बिगड़ता है, तब द्वेष खड़ा होता है। पूरा दिन इसका ध्यान गुरु के चहेते शिष्य के ऊपर ही रहता है, उसकी एक-दो भूल हो गई हो तो वह उसकी निंदा करता है। बाद में अगर खुद आश्रम से बाहर सत्ता में आता है तो सालों के बाद भी बदला लेता है। धर्म में वाद-विवाद या धार्मिक चर्चाओं में भी एक जीतता है और बाकी सभी हारते हैं। फिर हारा हुआ मन में गाँठ बांधता है और जब वह शिकंजे में आता है तब उसे हराता है!
सिर्फ़ एक संपूर्ण ज्ञानी ही ऐसे होते हैं कि जो स्पर्धा में नहीं उतरते और उनसे किसी को स्पर्धा नहीं होती। स्पर्धा से अलिप्त रहें वही सच्चे ज्ञानी!
Q. स्पर्धा यानि क्या? वह किस कारण से होती है?
A. परम पूज्य दादा भगवान स्पर्धा की तुलना रेसकोर्स, यानि कि घुड़दौड़ के साथ करते हैं। उनकी यहाँ जो... Read More
Q. स्पर्धा से क्या नुकसान होता है?
A. स्पर्धा वह संसार का विटामिन है। यह हमें संसार में डुबो देती है। हरएक जगह खुद को ज़्यादा लाभ मिले, यह... Read More
Q. कोई हमारे साथ स्पर्धा करे तो क्या करें?
A. स्पर्धा में जब सामने वाला व्यक्ति हमारे साथ तुलना होने लगे कि “ इसके पास ज़्यादा है, मेरे पास कम... Read More
Q. स्पर्धा से कैसे बाहर निकलें?
A. सही समझ विकसित करें स्पर्धा वह गलत समझ का परिणाम है। उसके सामने सच्ची समझ सेट करने से स्पर्धा नहीं... Read More
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