प्रश्नकर्ता : व्यवहार में कोई गलत कर रहा हो तो उसे टोकना पड़ता है, तो उससे उसे दुख होता है। तो वह किस तरह उसका निकाल करें?
दादाश्री : टोकने में हर्ज नहीं है, पर हमें आना चाहिए न! कहना आना चाहिए न, क्या?
प्रश्नकर्ता : किस तरह?
दादाश्री : बच्चे से कहें, 'तुझमें अक्कल नहीं, गधा है।' ऐसा बोलें तो फिर क्या होगा, वहाँ। उसमे भी अहंकार होता है या नहीं? आपको ही आपका बोस कहे कि 'आपमें अक्कल नहीं, गधे हो।' ऐसा कहे तो क्या हो? नहीं कहते ऐसा। टोकना आना चाहिए।
प्रश्नकर्ता : किस तरह टोकना चाहिए?
दादाश्री : उसे बिठाओ। फिर कहो, हम हिन्दुस्तान के लोग, आर्य प्रजा अपनी, हम कोई अनाड़ी नहीं और अपने से ऐसा नहीं होना चाहिए। ऐसा-वैसा सब समझाएँ और प्रेम से कहें तब रास्ते पर आएगा। नहीं तो आप तो मार, लेफ्ट एन्ड राइट, लेफ्ट एन्ड राइट ले लो तो चलता होगा?
परिणाम प्रेम से किए बिना आता नहीं। एक पौधा भी पालना-पोसकर बड़ा करना हो तो भी प्रेम से करते हो, तो बहुत अच्छा उगता है। पर वैसे ही पानी डालो न, और चीखो-चिल्लाओ तो कुछ नहीं होता। एक पौधा बड़ा करना हो तो! आप कहते हो कि ओहोहो, बहुत अच्छा हुआ पौधा। तो उसे अच्छा लगता है! वह भी अच्छे फूल देता है बड़े-बड़े!! तो फिर ये मनुष्य को तो कितना अधिक असर होता होगा?!
प्रश्नकर्ता : पर मुझे क्या करना चाहिए?
दादाश्री : अपना बोला हुआ नहीं फलता हो तो हमें चुप हो जाना चाहिए। हम मूरख हैं, हमें बोलना नहीं आता, इसलिए बंद हो जाना चाहिए। अपना बोला हुआ फलता नहीं और उल्टा अपना मन बिगड़ता है, अपना अवतार बिगड़ता है। ऐसा कौन करे फिर?
इसलिए एक व्यक्ति सुधारा जा सके, ऐसा यह काल नहीं है। वही बिगड़ा हुआ है, सामनेवाले को क्या सुधारेगा फिर? वही वीकनेस का पुतला हो, वह सामनेवाले को क्या सुधारेगा फिर?! उसके लिए तो बलवानपन चाहिए। इसलिए प्रेम की ही ज़रूरत है।
Book Name: प्रेम (Page #32 Paragraph #2 to #8 & Page #33 Paragraph #1,#2,#3)
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