जीवन सारा बिगड़ गया है, ऐसा जीवन नहीं होना चाहिए। जीवन तो प्रेममय होना चाहिए। जहाँ प्रेम हो वहाँ भूल ही नहीं निकालते। भूल निकालनी हो तो ठीक से समझाना चाहिए। उसे हम कहें, 'ऐसा करने जैसा है।' तो वह कहेगी, 'अच्छा किया मुझे कहा।' उपकार माने।
'चाय में शक्कर नहीं' कहेगा। अरे, पी जा न चुपचाप। बाद में उसे भी पता चलेगा न? वह हमें कहे उलटे कि आपने शक्कर नहीं माँगी?!' तब कहें, 'आपको पता चले तब भेजना।'
जीवन जीना नहीं आता। घर में भूल नहीं निकालते। निकालते हैं या नहीं निकालते अपने लोग?
प्रश्नकर्ता : हर रोज़ निकालते हैं।
दादाश्री : बाप की, माँ की, बच्चों की सबकी गलतियाँ निकालता है, मुआ। अपनी खुद की ही नहीं निकालता! कितना समझदार! अक्लमंद! मतलब कि ऐसी टेढ़ी जात है यह। अब समझदार हो जाना यानी कि अतिक्रमण मत करना!
कभी यों छीटा पड़ा, तो हमें तुरन्त समझ लेना चाहिए कि यह दा़ग लगा, इसलिए तुरन्त धो डालना। भूल तो होती है, नहीं होती ऐसा नहीं है, पर भूल धो डालना वह अपना काम।
प्रश्नकर्ता : पर दा़ग दिखें, ऐसी दृष्टि मिलनी चाहिए।
दादाश्री : वह दृष्टि हमें मिली है। दूसरे लोगों को तो मिली ही नहीं होती और हमें तो मिली है न कि यह भूल हुई, अपनी भूल पता चलती है। हमारी जागृति ऐसी है कि भूलें सब दिखलाती है। थोड़ी-थोड़ी दिखती हैं, जैसे-जैसे परतें हटती जाएँगी, वैसे-वैसे दिखते जाते हैं।
जब घर के लोग निर्दोष दिखें और खुद के ही दोष दिखेंगे, तब सच्चे प्रतिक्रमण होंगे।
Book Name: निजदोष दर्शन से... निर्दोष! (Page #73 Paragragh #3 to #8 Page #74 Paragragh #1 to #3)
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