श्रद्धया दीयते यत् तत् श्राद्धम् । (श्रद्धा से जो दिया जाए वह श्राद्ध है।)
श्राद्ध के लिए प्रचलित मान्यताओं के अनुसार, श्राद्ध यानी पितरों के आत्मा की शांति के लिए दान-धर्म करने का अवसर, कागवास यानी कौए को खीर-पूड़ी खिलाकर पितरों को तर्पण करने का अवसर। स्वजन की मृत्यु के बाद वारिस के रूप में सोलह साल श्राद्ध करके ऋण अर्पण करने का अवसर।
पितृपक्ष की अवधि १५ से १६ दिन की होती है। ऐसी मान्यता प्रचलित है कि इन पन्द्रह दिनों में पूर्वजों के आत्मा की शांति के लिए श्राद्ध विधि करने से पितृ बहुत संतुष्ट होते हैं।
लेकिन क्या यह सच है कि अगर पितृ संतुष्ट न हों तो वे हमें बाधा पहुँचाते हैं?
लौकिक समाज में ऐसी मान्यता प्रचलित है कि हर साल श्राद्ध के समय हमारे पितृ जल पीने आते हैं। उनके नाम पर खीर-पूड़ी बनाकर रखी जाती है। ऐसा माना जाता है कि पितृ कौए के रूप में आते हैं और खाकर जाते हैं, यानी वे तृप्त होते हैं और उनकी मुक्ति होती है। यहाँ पर किसी भी विचारक को बहुत से प्रश्न खड़े होने चाहिए।
आत्मा देह छोड़ता है की तुरंत ही दूसरी योनि में जन्म ले लेता है, एक सेकेंड का विलंब किए बगैर। तो अगर हम माँ-बाप और दादा-दादी को पितृ कहें, तो वे लोग अभी कहीं जन्म ले चुके हैं। हम खुद भी पूर्वजन्म में किसी के माँ-बाप, दादा-दादी होंगे। वास्तव में पितृ किसे कहेंगे? हमारे पूर्वज हमारे पितृ या हम किसी के पितृ?
क्या हमें याद है कि पिछले जन्म में हमारे बच्चे कौन थे? या बच्चों के बच्चे कौन थे? क्या हम उन्हें बाधा पहुँचाने गए? तो हमारे पितरों को भी कहाँ याद होगा कि जिससे वो हमें बाधा पहुँचाने आएँगे?
जो माता-पिता, दादा-दादी हमें प्यार से पालपोस कर बड़ा करते हैं, वे हमें परेशान करने के लिए वापस आएँगे ऐसा हम कैसे सोच सकते हैं? अगर हमें घर में आर्थिक या पारिवारिक परेशानियाँ आएँ तो हमें अपने दिल के टुकड़े की तरह रखनेवाले माँ-बाप, दादा-दादी, बुज़ुर्गों पर उसका आक्षेप कैसे लगाया जा सकता है? जहाँ हम सभी अपने कर्मों का फल स्वतंत्र रूप से भोग रहे हैं, वहाँ माँ-बाप के दोष हमें भोगने पड़ेंगे यह कहाँ का तर्क है?
उल्टा अगर ऐसी कोई मान्यता हमारे दिमाग़ में घुस जाए कि मेरे बाप-दादा के कारण मेरा घर तहस नहस हुआ तो हमें अंदर कितना दुःख रहेगा और बाप-दादा के प्रति कितने द्वेष, अभाव और बैर उत्पन्न होंगे! हमारे अंदर के क्रोध-मान-माया-लोभ ही हमें बाधा पहुँचाते हैं। बाहर से हमें कोई बाधा पहुँचाने नहीं आता।
अगर हम पिछले जन्म में किसी के पितृ थे, तो हम इस जन्म में श्राद्ध में कौए बनकर कागवास में खीर-पूड़ी खाने जाते हैं? तो हमारे पूर्वज कैसे आ सकते हैं? और अगर आएँगे तो कौए बनकर ही क्यों आएँगे, मैना, तोता या मोर बनकर क्यों नहीं आएँगे?
मनुष्य मृत्यु के बाद अपने पुण्य और पाप के आधार पर चार गति में से किसी एक गति में जाता है। तो अपनी गति बदलकर कौआ बनकर कैसे आ सकता है?
हमें कोई भी मुश्किल आती है तो वह हमारे पापकर्म के उदय के कारण आती है। उसमें ऐसी अंधश्रद्धा का आसरा लेकर, अपने पितरों को दोषित ठहराने के बजाय हमें ऐसे बुरे वक़्त में भगवान का नाम लेकर अपना तप पूरा करना चाहिए। द्वेष, अभाव या झगड़े करने के बजाय शांति हो ऐसे प्रयत्न करने चाहिए। और अगर पितरों का दोष देखा हो तो उस भूल के लिए पछतावा करना चाहिए।
श्राद्ध के पीछे का सच्चा कारण के छिप जाने से और देखा-देखी के कारण समाज में ऐसी मान्यताएँ घुस गई हैं। परम पूज्य दादा भगवान श्राद्ध मनाने के पीछे का यथार्थ कारण खुला कर रहे हैं!
श्राद्ध मनाने के पीछे का असली कारण अपने पितृ नहीं बल्कि आयुर्वेद और विज्ञान है। भारत में आज से कुछ सालों पहले जब मलेरिया के रोग की दवा की खोज नहीं हुई थी तब की यह बात है।
हर साल भादो महीने में श्राद्ध की अवधि १५ से १६ दिनों की होती है। उन दिनों भादो महीने में गाँव के हर एक घर के बाहर एकाद खटिया पड़ी होती थी और उसमें मरीज़ ओढ़कर सो रहा होता था। उसे मलेरिया का तेज़ बुख़ार और उसके सभी असर होते थे क्योंकि भादो महीने में मच्छर बहुत ज़्यादा होते थे और उससे मलेरिया का बुख़ार बहुत फैलता था।
मलेरिया वह पित्त का ज्वर कहलाता है। कफ का या वायु का ज्वर नहीं, बल्कि पित्त का ज्वर। शरद ऋतु और भादो का महीना मतलब पित्त के प्रकोप का समय। बरसात के दिनों में मच्छरों का उपद्रव बहुत बढ़ जाता था। उसमें पित्तज्वर हो, ऊपर से उसे मच्छर काटे फिर वही मच्छर दूसरे व्यक्ति को काटे, तो उसके शरीर में भी ज्वर फैल जाए। उस समय तेज़ बुखार की कोई असरकारक दवाई नहीं मिलती थी, इस कारण बहुत अधिक लोगों की मृत्यु हो रही थी। तब ऐसी परिस्थिति पैदा हो गई थी कि अगर कोई उपाय नहीं मिला तो भारत की आबादी आधी हो जाएगी!
इसलिए इस पित्तज्वर को शांत करने के लिए हमारे ऋषिमुनियों और संतों ने यह खोज की कि इन दिनों में रोज़ाना लोगों को दूधपाक या खीर खिलाओ। उसमें दूध और चीनी होती है जिससे पित्त शांत होगा और मलेरिया महामारी पर भी रोक लगेगी। उन दिनों बड़े-बड़े परिवार हुआ करते थे। उसमें अगर रोज़ घर पर दूधपाक बनाना हो तो दूध बहुत अधिक मात्रा में चाहिए, इसलिए लोग घर पर रोज़ दूधपाक या खीर बनाएँगे नहीं।
इसलिए धर्म के नाम पर यह रिवाज शुरू करवाया कि भादो की पूनम से लेकर सोलह दिनों तक रोज़ दूधपाक बनाकर लोगों को खिलाओ। सिर्फ़ धर्म के नाम पर सब लोग नियम पर नहीं चलते, इस कारण से सामाजिक हेतु को उसके साथ जोड़ा गया। लोग कहते थे कि बाप-दादा के नाम का श्राद्ध कराओ। इसलिए घर में जो स्वजन गुज़र गए थे उनके नाम पर फिर लोगों ने यह शुरू किया। इसमें भी अगर कोई अड़ जाता था कि “मैं नहीं करूँगा”, तो “बाप-दादा का भी श्राद्ध नहीं करता” ऐसे सामाजिक दबाव के कारण वह अंत में श्राद्ध कर ही देता था। एक दिन किसी एक के घर में दूधपाक बनता और वह सभी लोगों को खिलाता। दूसरे दिन किसी दूसरे के यहाँ बनता था, इस तरह बारी-बारी से होता था। लोगों को यह पसंद आया। सच में, इस तरह से किए गए श्राद्ध का फल पितरों तक नहीं पहुँचता, लेकिन इसके पीछे पितरों को जोड़ने का उद्देश्य ऐसा था।
इसके बाद तो पूनम से लेकर सोलह दिनों तक रोज़ लोगों को दूधपाक खाने के लिए मिलता था। उससे सारा पित्त शांत हो जाता था। जिससे मलेरिया नहीं होता था और फिर मृत्यु भी नहीं होती थी। इसलिए लोग कहते थे कि सोलह श्राद्ध तक अगर जीवित रहा, तो ‘नवरात्रि’ में आया, मतलब कि नई रात देखी। यानी नवरात्रि मतलब नौ रातों का नहीं बल्कि जीवन में ‘नई रात’ देखने मिली उसका उत्सव है!
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