Related Questions

मृत्यु के बाद लौकिक विधियों का क्या महत्त्व है?

समाज में अनेक प्रकार की मान्यताएँ प्रचलित हैं कि मृत्यु के बाद व्यक्ति का जीव तेरह दिन तक भटकता रहता है। उनको शांति देने के लिए ग्यारहवें दिन पानी पिलाते हैं और उनकी सद्‌गति के लिए ब्राह्मणों को दान-पुण्य देने की भी महिमा है। कुछ मान्यताओं के अनुसार आत्मा अंगूठे जितना का होकर छप्पर पर बैठा रहता है। ऐसा भी कहा जाता है कि जीव को विश्वास आए कि खुद के प्रियजनों को घर के लोग संभाल लेंगे, उसके बाद ही वह मुक्त होता है। ये सब करने के पीछे का हेतु क्या है? क्या सच में जीव तेरह दिन भटकता है? बारहवीं और तेरहवीं करनी चाहिए या नहीं?

परम पूज्य दादा भगवान इन प्रश्नों का यहाँ पर बिल्कुल सटीक और स्पष्ट खुलासा कर देते हैं। सच्ची बात जानने के उत्सुक जिज्ञासु के प्रश्न के जवाब में वे जैसी है वैसी हक़ीकत खुली कर रहे हैं।

लौकिक विधियों का रहस्य

वास्तव में तो मृत्यु के बाद उसी समय आत्मा एक देह में से सीधा ही दूसरी योनि में जाता है। जब मनुष्य की अंतिम साँसें चल रही होती हैं तब आत्मा शरीर में से खिंचता है। जब आत्मा खिंचकर दूसरे गर्भ में पहुँच जाता है, फिर इस शरीर को छोड़ देता है और नया जन्म लेता है। जैसे साँप अपने एक बिल से बाहर निकलकर दूसरे बिल में प्रवेश कर रहा हो ठीक उसी तरह, एक ओर आत्मा इस शरीर से निकलता है और दूसरी ओर जन्म लेता है।

मान लीजिए कि किसी की मृत्यु अहमदाबाद में और जन्म बड़ौदा में होने वाला है तो, आत्मा एक देह छोड़े बिना जहाँ जाना हो उतना खिंचता है, लंबा हो सकता है। पिता का वीर्य और माता का रज इन दोनों के इकट्ठा होने का टाइमिंग हो, तब वहाँ योनि में प्रवेश करता है। जब तक नया शरीर नहीं मिल जाता तब तक अधिकतर पुराना घर नहीं छोड़ता। अपने स्तिथिस्थापक गुण के कारण आत्मा लंबा होकर एक सिरे को पुराने शरीर में और दूसरे सिरे को नए कार्य शरीर में पहुँचाने के बाद ही पुराना शरीर छोड़ता है।

मृत्यु के वक़्त तुरंत ही आत्मा दूसरा देह धारण कर लेता है, इसलिए आत्मा भटकता है यह बात सच नहीं है। लेकिन समाज में इन मान्यताओं का स्थापन करके लौकिक क्रियाएँ करने के पीछे का प्रयोजन यह है कि स्वजन की मृत्यु के बाद परिवार के लोग शुभ क्रियाओं में समय बिताएँ। परम पूज्य दादा भगवान ने बहुत सी लौकिक मान्यताओं के पीछे का हेतु यथार्थ रूप से समझाया है।

मोह उतारने के लिए शास्त्रों का पठन

सभी को यह अनुभव तो हुआ ही है कि मृत्यु के समय अच्छे से अच्छा मोह भी उतर जाता है और कुछ समय के लिए वैराग्य आ जाता है। क्योंकि मृत्यु एक ऐसी घटना है जिसमें हमें देह का विनाशी स्वरूप समझ में आता है। जिस देह के लिए, देह के सुखों और रिश्तों के लिए पूरी ज़िंदगी राग-द्वेष, मोह, कषाय किए वह देह एक दिन यहीं छोड़कर जाना है, इस वास्तविकता का एहसास मृत्यु ही हमें करवाती है।

मृत्यु के बाद गरुड़ पुराण कराया जाता है। उसमें मृत्यु के बाद की जीवन की गति का वर्णन है। नर्क का वर्णन सुनने वाले लोग जीते जी गलत काम करना बंद कर सकते हैं और उन्हें संसार की भटकन से छूटने की भावना होती है। स्वजन की मृत्यु के वक़्त सहज वैराग्य आया हो तब गीता का पाठ करने से लोगों की अध्यात्म की ओर रुचि बढ़ती है। खुद के आत्मा का साक्षात्कार करके मोक्ष में जाने की भावना मज़बूत होती है।

कई बार यह वैराग्य लंबे समय तक टिकता है और जीवन के प्रति दृष्टिकोण बदल जाता है। जबकि ज़्यादातर ऐसा वैराग्य थोड़े दिन टिकता है और फिर जीवन पहले जैसा ही हो जाता है। लेकिन इन शास्त्रों के पठन का हेतु जीवन को सही दिशा में मोड़ना था, जिसमें से हेतु बिसरा गया है और सिर्फ़ क्रियाएँ रह गई हैं। आज लोग देखादेखी या समाज के दबाव के कारण ये क्रियाएँ करते हैं।

बारहवाँ और तेरहवीं करने का महत्त्व

स्वजन की मृत्यु के बाद कुछ दिनों तक शोक मनाने और धार्मिक क्रियाएँ करने के पीछे का एक विशेष उद्देश्य होता था। लेकिन आजकल इन क्रियाओं के पीछे समाज का लक्ष्य अपने प्रियजन के प्रति सद्‌भावना का नहीं, बल्कि अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने पर ज़्यादा रहता है।

यानी समाज में वाह-वाही के लिए यह क्रियाएँ करना ठीक नहीं है। लेकिन साथ साथ खर्च बचाने के लोभ से क्रियाएँ ना करें वो भी ठीक नहीं है। लोगों को खिलाने का और दान-पुण्य करने का खर्च करने में नहीं पहुँच पाएँ तो कर्ज़ करके यह क्रियाएँ करना ज़रूरी नहीं है। स्वजन के आत्मा को शांति मिले और घर के लोग भी समता में रहें यह हेतु बनाए रखकर अपनी शक्ति के हिसाब से ही खर्च करना चाहिए।

परम पूज्य दादाश्री लौकिक क्रियाओं की आवश्यकता का सुंदर खुलासा कर रहे हैं।

प्रश्नकर्ता: यह मृत्यु के बाद बारहवाँ करते हैं, तेरही करते हैं, बरतन बाँटते हैं, भोजन रखते हैं, उसका महत्त्व कितना है?

दादाश्री: वह अनिवार्य चीज़ नहीं है। वह तो पीछे वाह-वाह के लिए करवाते हैं। और यदि खर्च न करें न, तो लोभी होता रहता है। दो हज़ार रुपये दिलवाए हों तो खाता-पीता नहीं है और दो हज़ार के पीछे पैसे जोड़ता रहता है। इसलिए ऐसा खर्चा करे तो फिर मन शुद्ध हो जाता है और लोभ नहीं बढ़ता है। परंतु वह अनिवार्य चीज़ नहीं है। अपने पास में हो तो करना, नहीं हो तो कोई बात नहीं।

सिर मुंडवाने का उद्देश्य

death

परिवार के किसी सदस्य की मृत्यु हुई हो तो मृतक के प्रति आदर दिखाने के लिए सिर मुंडवाया जाता है। इसके पीछे का दिलचस्प रहस्य परम पूज्य दादाश्री यहाँ खुला कर रहे हैं।

प्रश्नकर्ता: घर में कोई मर जाए तो उसके बाद सिर मुँडवाते हैं। उसका कोई कारण होगा न?

दादाश्री: गाँववालों को कैसे पता चलेगा कि इनके पिताजी मर गए हैं? इसलिए वह सिर मुँडवा देता है, मूँछ निकलवा देता है, ताकि लोग जान जाएँ कि इनके घर में किसी की मृत्यु हुई है, इसलिए फिर ‘चल मेरे साथ शादी में’ ऐसी-वैसी बातें नहीं करें। ये तो हिन्दुस्तान के रिवाज हैं। किसी न किसी आशय के बिना तो होंगे ही नहीं न! उसने सिर मुँडवाया हो, फिर क्या कोई पूछेगा कि, ‘तेरे पिता जी की तबियत कैसी है?’ नहीं, क्योंकि सिर मुँडवा लिया तो फिर समझ जाते हैं। कुछ पहचानने का साधन तो चाहिए या नहीं चाहिए?

×
Share on