इसलिए मृत्यु से कहें कि ''तुझे जल्दी आना हो तो जल्दी आ, देर से आना हो तो देर से आ, मगर 'समाधि मरण' बनकर आना!''
समाधि मरण अर्थात् आत्मा के सिवाय और कुछ याद ही नहीं हो। निज स्वरूप शुद्धात्मा के अलावा दूसरी जगह चित्त ही नहीं हो, मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार, कुछ भी डाँवाडोल हो नहीं! निरंतर समाधि! देह को उपाधी हो, फिर भी उपाधी छुए नहीं! देह तो उपाधीवाला है कि नहीं?
प्रश्नकर्ता : हाँ।
दादाश्री : केवल उपाधीवाला ही नहीं, व्याधिवाला भी है या नहीं? ज्ञानी को उपाधी छूती नहीं। व्याधि हुई हो तो वह भी छूती नहीं। और अज्ञानी तो व्याधि नहीं हो, तो उसे बुलाता है! समाधि मृत्यु अर्थात् 'मैं शुद्धात्मा हूँ' ऐसा भान रहे! अपने कितने ही महात्माओं की मृत्यु हुई, उन सभी को 'मैं शुद्धात्मा हूँ, मैं शुद्धात्मा हूँ' ऐसा भान रहा करता था।
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