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दान/परोपकार के प्रकार क्या हैं?

बदले हुए प्रवाहकी दिशाएँ

कितने प्रकार के दान हैं, यह जानते हो आप? चार प्रकार दान के हैं। देखो! एक आहारदान, दूसरा औषधदान, तीसरा ज्ञानदान और चौथा अभयदान।

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पहला आहारदान

पहले प्रकार का जो दान है वह अन्नदान। इस दान के लिए तो ऐसा कहा है कि भाई यहाँ कोई मनुष्य हमारे घर आया हो और कहे, 'मुझे कुछ दो, मैं भूखा हूँ।' तब कहें, 'बैठ जा, यहाँ खाने। मैं तुझे परोसता हूँ', वह आहारदान। तब अक्कलवाले क्या कहते हैं? इस तगड़े को अभी खिलाओगे, फिर शाम को किस तरह खिलाओगे? तब भगवान कहते हैं, 'तू ऐसी अक्कल मत लगाना। इस व्यक्ति ने खाया तो वह आज का दिन तो जीएगा। कल फिर उसे जीने के लिए कोई और  मिलेगा। फिर कल का विचार हमें नहीं करना है। आपको दूसरा झँझट नहीं करना कि कल वह क्या करेगा? वह तो कल उसे मिल जाएगा वापस। आपको इसमें चिंता नहीं करनी कि हमेशा दे पाएँगे या नहीं। आपके यहाँ आया इसलिए आप उसे दो, जो कुछ दे सको वह। आज तो जीवित रहा, बस! फिर कल उसका दूसरा कुछ उदय होगा, आपको फिकर करने की ज़रूरत नहीं।

प्रश्नकर्ता : अन्नदान श्रेष्ठ माना जाता है?

दादाश्री : अन्नदान अच्छा माना जाता है, पर अन्नदान कितना दे सकते हैं? कुछ सदा के लिए देते नहीं हैं न लोग। एक पहर खिला सके तो बहुत हो गया। दूसरा पहर फिर मिल आएगा। पर आज का दिन, एक पहर भी तू जीवित रहा न! अब इसमें भी लोग बचा-खुचा ही देते हैं या नया बनाकर देते हैं?

प्रश्नकर्ता : बचा हुआ हो, वही देते हैं, अपनी जान छुड़ाते हैं। बच गया तो अब क्या करे?

दादाश्रीः फिर भी उसका सदुपयोग करते हैं, मेरे भाई। पर नया बनाकर दें, तब मैं कहूँ कि करेक्ट है। वीतरागों के यहाँ कोई कानून होगा या गप्प चलेगी?

प्रश्नकर्ता : नहीं, नहीं, गप्प होती होगी?

दादाश्री : वीतरागों के यहाँ नहीं चलता, दूसरी सब जगह चलता है।

औषधदान

और दूसरा औषधदान, वह आहारदान से उत्तम माना जाता है। औषधदान से क्या होता है? साधारण स्थिति का मनुष्य हो, वह बीमार पड़ा हो और अस्पताल में जाता है। और वहाँ कोई कहे कि, अरे डॉक्टर ने कहा है, पर दवाई लाने को पचास रुपये मेरे पास नहीं हैं, इसलिए दवाई किस तरह लाऊँ? तब हम कहें कि ये पचास रुपये दवाई के और दस रुपये दूसरे। या तो औषध उसे हम मुफ्त दें कहीं से लाकर। हमें पैसा खर्च करके औषध लाकर फ्री ऑफ कॉस्ट (मुफ्त) देनी। तो वह औषध ले तो बेचारा चार-छह साल जीएगा। अन्नदान की तुलना में औषधदान से अधिक फायदा है समझ में आया आपको? किस में फायदा अधिक? अन्नदान अच्छा या औषधदान?

प्रश्नकर्ता : औषधदान।

दादाश्री : औषधदान को आहारदान से अधिक कीमती माना है। क्योंकि वह दो महीने भी जीवित रखता है। मनुष्य को अधिक समय जीवित रखता है। वेदना में से थोड़ी-बहुत मुक्ति दिलवाता है।

बाकी अन्नदान और औषधदान तो हमारे यहाँ सहज ही औरतें और बच्चे सभी करते रहते हैं। वह कोई बहुत कीमती दान नहीं है, पर करना चाहिए। ऐसा कोई हमें मिल जाए, तब हमारे यहाँ कोई दुःखी मनुष्य आया, तो उसे जो तैयार हो वह तुरन्त दे देना।

ऊँचा ज्ञानदान

फिर उससे आगे ज्ञानदान कहा है। ज्ञानदान में पुस्तकें छपवानी, लोगों को समझाकर सच्चे रास्ते पर ले जाएँ और लोगों का कल्याण हो, ऐसी पुस्तकें छपवानी आदि वह, ज्ञानदान। ज्ञानदान दें, तो अच्छी गतियों में, ऊँची गतियों में जाता है या फिर मोक्ष में भी जाता है।

इसलिए मुख्य वस्तु ज्ञानदान भगवान ने कहा है और जहाँ पैसों की ज़रूरत नहीं है, वहाँ अभयदान की बात कही है। जहाँ पैसों का लेन-देन है, वहाँ पर ये ज्ञानदान का कहा है और साधारण स्थिति, नरम स्थिति के लोगों को औषधदान और आहारदान, दो का कहा है।

प्रश्नकर्ता : पर पैसे बचे हों, वह उसका दान तो करे न?

दादाश्री : दान तो उत्तम है। जहाँ दुःख हो वहाँ दुःखों को कम करो और दूसरा सन्मार्ग पर खर्च करना। लोग सन्मार्ग पर जाएँ ऐसा ज्ञानदान करो। इस दुनिया में ऊँचा ज्ञानदान है। आप एक वाक्य जानो तो आपको कितना अधिक लाभ होता है। अब वह पुस्तक लोगों के हाथ में जाए तो कितना अधिक लाभ हो!

प्रश्नकर्ता : अब ठीक से समझ में आया...

दादाश्री : हाँ, इसलिए जिसके पास पैसे अधिक हों, उसे ज्ञानदान मुख्यतः करना चाहिए।

अब वह ज्ञानदान कैसा होना चाहिए? लोगों को हितकारी हो ऐसा ज्ञान होना चाहिए। हाँ, डकैतों की बातें सुनने के लिए नहीं। वह तो गिराता है। वह पढ़ें तो आनंद तो होता है उसमें, पर नीचे अधोगति में जाता रहता है।

ऊँचे से ऊँचा अभयदान

और चौथा अभयदान। अभयदान तो, किसी भी जीव मात्र को त्रास न हो ऐसा वर्तन रखना, वह अभयदान।

प्रश्नकर्ता : अभयदान ज़रा अधिक समझाइए।

दादाश्री : अभयदान यानी हमसे किसी जीव को किंचित् मात्र दुःख न हो। उसका उदाहरण देता हूँ। मैं सिनेमा देखने जाता था, छोटी उम्र में, बाईस-पच्चीस वर्ष की उम्र में। तो वापिस आऊँ तो रात के बारह-साढ़े बारह बजे होते थे। पैदल चलते हुए आता था तो जूते खड़कते थे। हम वो लोहे की नाल लगवाते थे, इसलिए खटखट होती और रात में आवाज़ बहुत अच्छी आती। रात को कुत्ते बेचारे सो रहे होते, वे आराम से सो रहे होते, वे ऐसे करके कान ऊँचे करते। तब हम समझ जाते कि चौंका बेचारा हमारे कारण। हम ऐसे कैसे जन्मे इस मुहल्ले में कि हमसे कुत्ते भी डर जाते हैं। इसलिए पहले से, दूर से ही जूते निकालकर हाथ में लेकर आता और चुपके से आ जाता, पर उसे चौंकने नहीं देता था। यह छोटी उम्र में हमारा प्रयोग। अपने कारण चौंका न?

प्रश्नकर्ता : हाँ, उसकी नींद में भी विक्षेप पड़ा न?

दादाश्री : हाँ, फिर वह चौंका न, तो अपना स्वभाव नहीं छोड़ेगा। फिर कभी भौंके भी सही, स्वभाव जो ठहरा। इसलिए उसे तो सोने दें, तो क्या बुरा? इससे मुहल्लेवालों पर  तो न भौंके।

इसलिए अभयदान, किसी जीव को किंचित् मात्र दुःख नहीं हो, ऐसे भाव पहले रखने और फिर वे प्रयोग में आते हैं। भाव किए हों तो प्रयोग में आते हैं। पर भाव ही नहीं किए हों तो? इसलिए इसे बड़ा दान कहा भगवान ने। उसमें पैसों की कोई ज़रूरत नहीं। ऊँचे से ऊँचा दान ही यह है, पर यह मनुष्य के बस में नहीं। लक्ष्मीवाले हों, फिर भी ऐसा कर नहीं सकते। इसलिए लक्ष्मीवालों को लक्ष्मी से (दान) पूरा कर देना चाहिए।

यानी इन चार प्रकार के दान के अलावा अन्य किसी प्रकार का दान नहीं है, ऐसा भगवान ने कहा है। बाकी सब तो दान की बात करते हैं, वे सब कल्पनाएँ हैं। ये चार प्रकार के ही दान हैं, आहारदान, औषधदान, फिर ज्ञानदान और अभयदान। हो सके तब तक अभयदान की भावना मन में करके रखनी चाहिए।

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