परम पूज्य दादा भगवान कहते हैं कि दुनिया में दो तरह के धर्म होते हैं। एक प्रकार का धर्म वह है जिसमें जगत् की सेवा होती है, जिसमें जगत् के लोगों पर उपकार होता है। जबकि दूसरे प्रकार का धर्म वह है, जिसमें खुद की (स्व की-आत्मा की) सेवा होती है।
खुद अपनी सेवा करना अर्थात क्या? कषाय यानी क्रोध-मान-माया-लोभ रहित जीवन जीना। परम पूज्य दादाश्री कहते हैं कि, "जो खुद की सेवा करता है, वह जगत् की सेवा करने से भी बढ़कर है।"
खुद की सेवा करने वाला किसी को भी दुःख नहीं देता, यह सबसे पहला लक्षण है। जिसमें झूठ न बोलना, चोरी न करना, हिंसा न करना यह सभी आ जाते हैं। इसके अलावा परिग्रह यानी धन या अन्य वस्तुओं का संग्रह न करना , ब्रह्मचर्य का पालन करना और विषय विकार से भी किसी को दुःख न देना, ये सभी खुद की सेवा में ही समाहित हैं। संक्षेप में, पाँच महाव्रतों (अचौर्य, अहिंसा, अपरिग्रह, सत्य, ब्रह्मचर्य) का अनुसरण करते हुए जीवन जीना वह खुद ही खुद की सेवा करने के बराबर है।
जो खुद की सेवा करता है, उसमें दूसरों का हड़पने, धोखा देने, किसी को नीचा दिखाने या अपमानित करने की प्रवृत्ति नहीं होती। इतना ही नहीं, जो खुद की सेवा करता है, उसे जगत् के सभी लोग दुःख देते हों, फिर भी वह खुद किसी को ज़रा सा भी दुःख नहीं देता। बाहर से तो दुःख नहीं देता, लेकिन भीतर से भी “तुम्हारा बुरा हो” ऐसे कोई भी बुरे भाव नहीं करता। उल्टा, जो दुःख दे देता है, उसके लिए भी “आपका अच्छा हो, भला हो,” ऐसे अच्छे भाव करता है।
इसलिए खुद की सेवा करने के लिए, सबसे पहले यह निश्चय करना चाहिए कि, "मुझे किसी को दुःख नहीं देना है।" निश्चय करने के बाद भी दुःख दे दिया जाए तो विस्तार से विश्लेषण करना चाहिए कि, "किस तरह से दूसरों को दुःख दे दिया जाता है?" जितनी बार किसी को दुःख हो जाए ऐसे विचार, वाणी या वर्तन हो जाएँ, तब सच्चे दिल से पछतावा करना चाहिए और फिर से किसी को दुःख नहीं देना है ऐसा निश्चय करना चाहिए। सामनेवाला दुःख दे जाए तब "यह दुःख देता है, तो मैं भी उसे दुःख दे दूँ, इसमें क्या बुराई है?" इस तरह से रक्षण नहीं करना चाहिएI परम पूज्य दादाश्री कहते हैं कि, सुबह उठकर पाँच बार हमें जिस भगवान में श्रद्धा हो, उनके पास शक्तियाँ माँगनी चाहिए कि, "मेरे मन-वचन-काया से इस संसार में किसी भी जीव को किंचित्मात्र भी दुःख न हो।"
परम पूज्य दादा भगवान कहते हैं कि, "यदि खुद पर उपकार करे तो उसका कल्याण हो जाए। लेकिन उसके लिए खुद अपने आपको जानना पड़ेगा, तब तक लोगों पर उपकार करते रहना, लेकिन उसका भौतिक फल मिलता रहेगा। खुद अपने आपको जानने के लिए, 'हम कौन हैं?' वह जानना पड़ेगा।“
वास्तव में खुद की सच्ची पहचान प्राप्त करने के बाद ही खुद पर उपकार होता है। खुद कौन है, यह जानने के बाद “मैं आत्मा हूँ” यह श्रद्धा रखकर , दूसरे आत्मा को दुःख न पहुँचे इस समझ के साथ सेवा होती है।
खुद आत्मा को पहचानकर, आत्मास्वरूप में रहता है, फिर उसे दूसरे की आत्मा के साथ जुदाई नहीं रहता। दूसरे की आत्मा को भगवान के रूप में देखकर ही सारे व्यवहार होते हैं। जिन्हें प्रत्येक जीव में भगवान हैं, ऐसी समझ रहती है, उनके द्वारा कषाय या विषय-विकार से किसी को दुःख नहीं होता।
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