इस दुनिया में सबसे पहले करने योग्य कोई सेवा हो तो वह माँ-बाप की सेवा है। हिंदुस्तान की संस्कृति में माँ-बाप की सेवा को बहुत महत्व दिया गया है। यदि सच्चे दिल से अपने माँ-बाप की सेवा की जाए तो जीवन में दुःख नहीं आता, हमेशा शांति रहती है। इतना ही नहीं, माँ-बाप की सेवा करने से जीवन में भौतिक सुख-सुविधाएँ भी प्राप्त होती हैं। माँ-बाप की सेवा संसार में तो प्रगति कराती ही है, बल्कि साथ-साथ आध्यात्मिक उन्नति और मोक्ष के लिए भी सहायक होती है।
परम पूज्य दादाश्री एक ही वाक्य में कहते हैं कि जो बच्चे अपने माँ-बाप की सेवा करते हैं, उन्हें कभी भी पैसों की कमी नहीं आती और सभी आवश्यकताएँ पूरी होती हैं! वे कहते हैं, "माँ-बाप की सेवा नहीं करें वे इस जन्म में सुखी नहीं होते हैं। माँ-बाप की सेवा करने का प्रत्यक्ष उदाहरण क्या ? तब कहें कि सारी ज़िन्दगी पर्यंत दुःख नहीं आता। अड़चनें भी नहीं आतीं, माँ-बाप की सेवा से!" इसलिए वे सभी उम्र के लोगों से माँ-बाप की सेवा करने का अनुरोध करते हैं।
धन प्राप्त करने या भौतिक सुख-सुविधाओं के लालच से प्रेरित होकर की गई माँ-बाप की सेवा वह सच्ची सेवा नहीं है। उनकी तो सच्चे दिल से सेवा करनी चाहिए। लेकिन अधिकतर लोग ज़िम्मेदारी तो निभानी पड़ेगी ऐसा समझकर मजबूरी में माँ-बाप की सेवा करते हैं। अथवा समाज के दबाव से, दिखावे के लिए, या लोगों के बीच बुरा दिखेगा ऐसे भय से माँ-बाप की सेवा करते हैं।
माँ-बाप की सेवा से तो प्रत्यक्ष नगद फल मिलता है। सच्चे दिल से माँ-बाप की सेवा करने से संसार में प्रगति होती है साथ–साथ जीवन भर सुख, शांति और लक्ष्मी सब कुछ मिलती है।
भगवान बाहर दिखाई नहीं देते, लेकिन माँ-बाप हमारे सामने ही हैं। उनमें ही जीवित भगवान हैं। पुण्यशाली होते हैं उनके भाग्य में ही माँ-बाप की सेवा आती है। इसलिए उनकी सेवा पूरे अहोभाव के साथ करनी चाहिए।

परम पूज्य दादा भगवान कहते हैं कि, "माँ-बाप की सेवा करना वह धर्म है। वह तो चाहे कैसे भी हिसाब हो, पर यह सेवा करना हमारा धर्म है और जितना हमारे धर्म का पालन करेंगे, उतना सुख हमें उत्त्पन्न होगा। बुज़ुर्गों की सेवा तो होती है, साथ-साथ सुख भी उत्पन्न होता है। माँ-बाप को सुख देने से हमें सुख मिलता है। जो माँ-बाप को सुखी रखते हैं, वे लोग सदैव कभी भी दुःखी नहीं होते।“
बच्चे के जन्म से बड़े होने तक माँ-बाप ही उसकी सेवा करते हैं। वह बच्चे को खिलाते हैं, पिलाते हैं, आधी रात में उसका डायपर बदलते हैं और बीमारी में रात भर जागकर भी बच्चे की देखभाल करते हैं। बच्चा बड़ा होता है तो उसे पढ़ाते-लिखाते हैं। स्कूल और ट्यूशन की फीस के अलावा, वे किताबें, कपड़े और वाहन भी दिलवाते हैं। बच्चे को पसंदीदा खाना बनाकर खिलाते हैं, उसका मनचाहा सब लाकर देते हैं। हरएक चीज़ में माँ-बाप खुद की ज़रूरतें छोड़कर भी बच्चों का पालन-पोषण करते हैं।
हम पर किसी ने थोड़ा सा भी उपकार किया हो, तो हम जीवन भर उसे याद रखकर उनका उपकार चुकाने की कोशिश करते हैं। मान लीजिए, परीक्षा के दिन हमारी गाड़ी पंचर हो जाए, पहुँचने में देर हो रही हो और हम बहुत टेंशन में हों, तभी कोई पड़ोसी रास्ते में मिल जाए और अपनी कार में लिफ्ट देकर समय पर पहुँचा दे तो हमें उनकी मदद याद रहती है और उनकी ज़रूरत के समय हम उन्हें याद करके मदद पहुँचा देते हैं। तो फिर पूरी जिंदगी माँ-बाप ने हमारे ऊपर जो इतने सारे उपकार किए हैं उन्हें कैसे भूल सकते हैं? हमारा जन्म हुआ तब से बड़े होने तक माँ-बाप ने हमारी इतनी देखभाल की, तो जब वे बुज़ुर्ग हो जाएँ तब हमें उनकी देखभाल नहीं करनी चाहिए?
जिन्होंने हमें बड़ा करने में अपनी आधी ज़िंदगी खर्च कर दी, हमारे जीवन में अच्छे संस्कार बोए जब ऐसे माँ-बाप वृद्ध हो जाएँ, तब उनकी सेवा करने से चूकना नहीं चाहिए। माँ-बाप के उपकारों को हमेशा लक्ष्य में रखकर उनकी वृद्धावस्था में अवश्य सेवा करनी चाहिए। उन्हें किसी भी प्रकार की अशांति न हो, उन्हें कोई भी आर्थिक, मानसिक या शारीरिक कष्ट न आएँ इस तरह से उनका ध्यान रखना चाहिए।
आजकल बहुत कम लोग सच्चे दिल से अपने माँ-बाप की सेवा करते हैं। माँ-बाप अपने बच्चों के लिए सर्वस्व न्यौछावर कर देते हैं, लेकिन उन्हीं माँ-बाप को बच्चे दुत्कार देते हैं। वे खुद की मौज-मस्ती करने के लिए या अपनी स्वतंत्रता भोगने के लिए अपने बुज़ुर्ग माँ-बाप को घर से निकाल देते हैं। पूरी दुनिया के संतानों को अपने माता-पिता की सेवा कैसे करनी चाहिए यह समझाना चाहिए।
माँ-बाप अकेले ही चार-चार बच्चों को पालतें हैं, बड़ा करते हैं। लेकिन जब माँ-बाप बूढ़े होते हैं तो चार में से एक भी बेटा माँ-बाप की देखभाल नहीं कर पाता, तब माँ-बाप के दिल को बहुत ठेस पहुँचती है। जब हमारे हिस्से माँ-बाप की सेवा आती है, तब दूसरे भाई-बहन सेवा क्यों नहीं करते ऐसी शिकायत नहीं करनी चाहिए। बल्कि, मेरा सौभाग्य है कि माँ-बाप की सेवा करने का अवसर मिला है, ऐसे भाव के साथ सेवा करने से माँ-बाप को भी संतोष मिलेगा और खुद को भी सुख उत्पन्न होगा।
बुढ़ापा आए तो एक नया बचपन ही शुरू हो जाता है। वृद्ध माँ-बाप को शरीर में दर्द शुरू हो जाता है, वे बोल नहीं पाते, बेचैनी होती है, नींद नहीं आती, तब उनकी व्यथा समझनी चाहिए। चाहे माँ-बाप कैसे भी हों, लेकिन उनके बुढ़ापे में उनके साथ सही एडजस्टमेंट लेकर उनकी सेवा करनी चाहिए। ऐसे समय में उनको कुछ भी बोल दें और मन खराब करें तो माँ-बाप के दिल को बहुत चोट पहुँचती है। उसके बावजूद भी, बुज़ुर्ग माँ-बाप की सेवा करते समय मन खराब हो जाए, अकुलाहट हो जाए तो माफी माँग लेनी चाहिए। वृद्ध माँ-बाप की सेवा अपने भाग्य में आए तो उसे एक अच्छा संयोग मिला, ऐसा समझकर दिल से उनकी सेवा करनी है ऐसा तय करना चाहिए। नियम है कि जैसा तय करते हैं वैसी मानसिक, शारीरिक और आर्थिक शक्ति हमारे भीतर प्रकट हो जाती है।
परम पूज्य दादाश्री कहते हैं, "जो व्यवहार खुद के धर्म का तिरस्कार करे, माँ-बाप के संबंध का तिरस्कार करे, उसे धर्म कैसे कहेंगे?" हम बाहर चाहे कितनी भी धार्मिक क्रियाएँ करते हों, लेकिन माँ-बाप की सेवा न करें, तो हम अपने संतान धर्म से चूक जाते हैं। धर्म तो उसका नाम है जो हर संबंध को स्वीकारे और जिसमें आदर्श व्यवहार हो।
कई माँ-बाप को शिकायत होती है कि उनके बेटे उनकी सेवा नहीं करते। तब उन माँ-बाप को खुद समजना चाहिए कि क्या उन्होंने अपने माँ-बाप की सेवा की थी? जैसे संस्कार हमने जीए होते हैं, वैसे ही संस्कार हमारी संतानों को विरासत में मिलते हैं। माँ-बाप की सेवा अवश्य करनी चाहिए। अगर हम अपने माँ-बाप की दिल से सेवा नहीं करेंगे तो, हमारे बच्चे भी हमें देखकर वही सीखेंगे।
परिवार के सदस्य एक-दूसरे के साथ अपने-अपने अहंकार के आधार पर, लक्ष्मी या विरासत में मिली हुई प्रॉपर्टी के मोह के आधार पर या कभी-कभी बच्चों के मोह के आधार पर एक-दूसरे के साथ झगड़ते हैं। यदि माँ-बाप बच्चों की उपस्तिथि में परिवारजनों से राग-द्वेष करें, अंदर ही अंदर झगड़ें तथा एक-दूसरे पर आक्षेप लगाएँ, तो बच्चे भी वैसा ही करना सीख जाते हैं। फिर माता-पिता शिकायत करते हैं कि, “मेरे बच्चे मेरी बात क्यों नहीं सुनते?” लेकिन बच्चों ने बचपन से यही सब देखा है, इसलिए ये संस्कार उनमें अंकित हो जाते हैं।
यदि हम घर में अपने माता-पिता, सास-ससुर या बुज़ुर्गों से लड़ते हैं, तो बच्चे भी बड़े होकर ऐसा ही करना सीख जाते हैं। वे देख-देखकर तय करते हैं कि, “माँ-बाप ऐसा करते हैं, इसलिए यह सही है। ऐसा ही करना होता है, मुझे भी ऐसा ही करना चाहिए।” फिर जब बच्चे बड़े होते हैं, तब उन्हें लाख समझाने, पर भी नहीं समझते हैं, लेकिन जब करके दिखातें हैं, तब तुरंत समझ जाते हैं।
इस प्रसंग से संबंधित एक कहानी है। एक छोटा बच्चा मिट्टी के टूटे-फूटे बर्तन इकट्ठा कर रहा था। उसकी माँ ने उसे ऐसा करते हुए देखा, तो पूछा कि, "बेटा, तुम मिट्टी के टूटे-फूटे बर्तन क्यों इकट्ठा कर रहे हो?" लड़के ने जवाब दिया कि, "आप दादा-दादी को मिट्टी के टूटे-फूटे बर्तनों में खाना देती हैं। तो मैं भी बड़ा होकर आपको इन मिट्टी के टूटे-फूटे बर्तनों में खाना दूँगा। इसीलिए इकट्ठा कर रहा हूँ।" यह सुनकर माँ की आँखें खुल गईं और उसने तय किया कि अब से मैं अपने सास-ससुर की अच्छी सेवा करूँगी।
यदि हमने अपने माँ-बाप की भाव बिगाड़े बगैर, दिल से सेवा की होगी तो हमारी सेवा के अंतराय भी टूट जाएँगे। बच्चे देखकर सीखेंगे कि मेरे माँ-बाप ने दादा-दादी की इतनी सेवा की है, तो मैं भी बड़ा होकर उनकी सेवा करूँगा।
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