प्रश्नकर्ता : लोकसेवा करते-करते उसमें भगवान के दर्शन करके सेवा की हो तो वह यथार्थ फल देगी न?
दादाश्री : भगवान के दर्शन किए हों, तो लोकसेवा में फिर पड़ता नहीं, क्योंकि भगवान के दर्शन होने के बाद कौन छोड़े भगवान को? यह तो लोकसेवा इसके लिए करनी है कि भगवान मिलें, इसलिए। लोकसेवा तो हृदय से होनी चाहिए। हृदयपूर्वक हो, तो सब जगह पहुँचे। लोकसेवा और प्रख्याति दोनों मिले, तो मुश्किल में डाल दे मनुष्य को। ख्याति बिना की लोकसेवा हो, तब सच्ची। ख्याति तो होनेवाली ही है, पर ख्याति से इच्छा रहित हो, ऐसा होना चाहिए।
जनसेवा तो लोग करें ऐसे हैं नहीं। यह तो भीतर छुपा हुआ कीर्ति का लोभ है, मान का लोभ है, सब तरह-तरह के लोभ पड़े हैं, वे करवाते हैं। जनसेवा करनेवाले लोग तो कैसे होते है? वे अपरिग्रही पुरुष होते हैं। यह तो सब नाम बढ़ाने के लिए। धीरे-धीरे 'किसी दिन मंत्री बनूँगा' ऐसा करके जनसेवा करता है। भीतर नीयत चोर की है, इसलिए बाहर की मुश्किलें, बिना काम के परिग्रह, वह सभी बंद कर दो तो सब ठीक हो जाएगा। यह तो एक ओर परिग्रही, संपूर्ण परिग्रही रहना है और दूसरी ओर जनसेवा चाहिए। ये दोनों कैसे संभव है?
Book Name: सेवा परोपकार (Page # 15 Paragraph #1 & #2)
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