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दूसरों की मदद कैसे करें?

परोपकार करने के लिए पैसे से ही दूसरों की मदद करें यह ज़रुरी नहीं है। हम अपनी शारीरिक शक्ति से, बुद्धि से या अच्छा व्यवहार करके भी लोगों की मदद कर सकते हैं। जैसे, किसी को कोई काम हो तो हम उसके लिए चक्कर लगा सकते हैं । कोई तकलीफ में हो तो उनके साथ दो अच्छे शब्द बोल सकते हैं, किसी को ज़रूरत हो तो उनके लिए समान खरीदकर ला सकते हैं। किसी गरीब को पुराने कपड़े दे सकते हैं या दो जोड़ी कपड़े सिलवाकर दे सकते हैं। कोई मुश्किल में हो तो उन्हें ज़रूरी सलाह दे सकते हैं कि “ऐसा करें” या “ऐसा न करें”। किसी को बिन माँगी सलाह न दे, लेकिन सामने वाले का दुःख दूर हो जाए उतनी समझ दी जा सकती है।

हमारे पास बुद्धि हो तो उससे भी सामनेवाले की मदद कर सकते हैं। पहले के ज़माने में गाँव में कोई झगड़ा हुआ हो तो जो बुद्धिमान लोग होते थे वे आमने-सामने समझा-बुझाकर झगड़े का निवारण कर देते थे। इतना ही नहीं, दोनों को अपने घर भोजन कराकर, खुश करके भेजते थे और यह सब करने के बदले में कोई कीमत भी नहीं लेते थे। पहले के वैद्य थे वे बीमारियों का इलाज कर देते थे और लोग जो दे जाते थे, उसे ही स्वीकार कर लेते थे। लेकिन आजकल, जिस प्रकार की योग्यता और व्यावसायिक ज्ञान हो उसका उपयोग पैसा कमाने के लिए ही हो गया है। इसमें कुछ गलत नहीं है और आजकल पैसे नहीं लेंगे तो घर नहीं चलेगा। इसलिए पैसे लीजिए लेकिन भीतर ध्यान में रखिए कि अतिरिक्त पैसे दान में देने हैं और अपने कौशल का उपयोग करके किसी की परेशानी में मदद कर सकें ऐसा लक्ष्य रखना चाहिए।

गरीबों को पैसे देकर मदद करने में भी विवेक रखना चाहिए। सीधे पैसे देने के बजाय उनकी गरीबी कम हो, गरीब लोग अपने पैरों पर खड़े हो सकें, उनका जीवन स्तर ऊँचा आए ऐसे प्रयत्न करने चाहिए। नकद पैसे दान में देने के पश्चात् वह रकम गलत मार्ग जैसे नशे या जुए में बर्बाद हो जाए तो वहाँ मदद का दूसरा रास्ता ढूंढना चाहिए।

परम पूज्य दादा भगवान कहते हैं कि क्रिया महत्वपूर्ण नहीं है, हमारा भाव महत्वपूर्ण है। बाहरी परिस्थितियाँ साथ दें या न दें ये हमारे हाथ की बात नहीं है। लेकिन मन में भाव रखना कि किस तरह से मदद करें यह हमारा स्वतंत्र भाग है।

दादाश्री: बाहर कम हो तो हर्ज नहीं, लेकिन अपना अंदर का भाव तो होना ही चाहिए कि मेरे पास पैसे हैं, तो मुझे किसी का दुःख कम करना है। अक़्ल हो, तो मुझे अक़्ल से किसी को समझाकर भी उसका दुःख कम करना है। खुद के पास जो सिलक बाकी हो उससे हेल्प करना, या तो ओब्लाइजिंग नेचर तो रखना ही। ओब्लाइजिंग नेचर यानी क्या? दूसरों के लिए करने का स्वभाव!

ओब्लाइजिंग नेचर हो, तो कितना अच्छा स्वभाव होता है! पैसे देना ही ओब्लाइजिंग नेचर नहीं है। पैसे तो हमारे पास हों या न भी हों लेकिन हमारी इच्छा, ऐसी भावना हो कि इसे किस प्रकार हेल्प करूँ। हमारे घर कोई आया हो तो, उसकी कैसे कुछ मदद करूँ, ऐसी भावना होनी चाहिए। पैसे देने या नहीं देने, वह आपकी शक्ति के अनुसार है।

पैसों से ही ओब्लाइज किया जाए ऐसा कुछ नहीं है, वह तो देनेवाले की शक्ति पर निर्भर करता है। मन में सिर्फ भाव रखना है कि किस तरह 'ओब्लाइज' करूँ ? इतना ही रहा करे, उतना देखना है।

परोपकार की शुरुआत घर से!

लोकसेवा और परोपकार के लिए निकल पड़े प्रत्येक व्यक्ति को पहले अपने घर को संभालना चाहिए, फिर बाहर के लोगों की मदद करनी चाहिए। लोगों और समाज की मदद करने के लिए दौड़ जाएँ और घर की ज़िम्मेदारियों से चूक जाएँ, परिणाम स्वरूप क्लेश और झगड़ा बढ़ जाए ऐसा नहीं करना चाहिए। पूरे गाँव का भला करते हों, लेकिन अपने घर के ही लोग भूखे हों तो ऐसे परोपकार का कोई अर्थ नहीं है। लेकिन घर के सभी राज़ी हों और सामने से ही कहें कि, “जाओ, समाज का काम करो।" ऐसा व्यवहार रखना चाहिए। घर की सभी ज़िम्मेदारियाँ निभाकर बाहर के लोगों की मदद करने जाएँ और इसकेबाद भी यदि घर के सदस्य आपत्ति उठाएँ तब आपको प्रेम से आपना दृष्टिकोण और हेतु समझाना चाहिए।

परोपकार की शुरुआत घर से करनी चाहिए। घर में रौब मारते हों, दूसरों को तकलीफ हो या दुःख हो ऐसा वर्तन हो और बाहर परोपकार करें यह भी उचित नहीं है। विशेषकर बच्चे और युवा स्वयंसेवक के रूप में बाहर भिन्न-भिन्न प्रवृत्तियो में भाग लेने के लिए दौड़ पड़ते हैं, लेकिन घर में अपने ही छोटे-बड़े काम नहीं संभालते, तो यह परोपकार का सही तरीका नहीं है।

अच्छे-बुरे के लिए, परोपकार समान रखना

जैसे आम का पेड़ अपने फल नहीं खाता, गुलाब का पौधा अपने फूलों का आनंद नहीं लेता और नीम का पेड़ अपनी छाया का उपयोग खुद नहीं करता, उसी प्रकार मनुष्य के मन-वचन-काया खुद के स्वार्थ के लिए नहीं बल्कि परोपकार के लिए उपयोग किए जाएँ तो उत्तम है। लेकिन मनुष्य में बुद्धि विकसित हुई है, इसलिए वह दूसरों पर उपकार करते समय अच्छे-बुरे का भेद करने लगता है।

पेड़ अपने फल या फूल देते समय यह नहीं देखता कि उसके पास आया हुआ मनुष्य दुष्ट है या संत। वह सभी को समान भाव से ही मदद करता है। उसी प्रकार हमें भी सामनेवाला व्यक्ति अच्छा है या खराब यह नहीं देखना चाहिए। यदि सामनेवाला हमारे उपकार का बदला अपकार से दे तो भी उसकी सहायता करने में पीछे न हटें यही परोपकार की सच्ची रीति है। उस समय "मैं इतनी ज़्यादा मदद करता हूँ, तो भी ज़रूरत के समय मदद नहीं की, उल्टा मुझे अड़चन में डाल दिया" ऐसी शिकायत नहीं करनी चाहिए।

कोई आम के पेड़ को पत्थर या कुल्हाड़ी मारे तो भी वह आम का फल ही देता है। उसी प्रकार, चाहे जितनें भी आरोप लगें, अपमान या उपेक्षा हो, तो भी यदि परोपकार के स्वभाव को नहीं छोड़ेतो उस जीव की उर्ध्वगति होती है। संक्षेप में, परोपकार करने वाला सामनेवाले की समझदारी नहीं देखता। बल्कि मुझसे जो मिला उसे सुख प्राप्त होना ही चाहिए ऐसी भावना का सेवन करता है।

सेवा और परोपकार के पीछे साफ़ नीयत होनी चाहिए

परम पूज्य दादा भगवान कहते हैं, "सेवा तो उसका नाम कि तू काम करता हो, तो मुझे पता भी नहीं चले। उसे सेवा कहते हैं। मूक सेवा होती है। पता चले, उसे सेवा नहीं कहते।“

सच्ची परोपकार की भावना में नीयत साफ़ होनी चाहिए। इसके पीछे यश, मान, प्रतिष्ठा या कीर्ति किसी की भी अपेक्षा नहीं होनी चाहिए। कई बार लोकसेवा या सामाज सेवा करने के पीछे भीतर मान पाने, समाज में अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने या कीर्ति का लोभ होता है। सच्ची जनसेवा करनेवाले व्यक्ति में किसी प्रकार का परिग्रह नहीं होता, उसमें कुछ इकट्ठा करने की वृत्ति नहीं होती। एक ओर मान और कीर्ति की अपेक्षा रखें और दूसरी तरफ़ परोपकार करें, ये दोनों एक साथ कैसे हो सकते हैं? जिसे कीर्ति की अपेक्षा नहीं है और जो शुद्ध नियत से लोगों की मदद करता है, बदले में कुछ भी अपेक्षा नहीं होती, उसकी ख्याति अपने आप संसार में फैल जाती है।

परम पूज्य दादा भगवान कहते हैं, “लोकसेवा तो हृदय से होनी चाहिए। हृदयपूर्वक हो, तो सब जगह पहुँचेगी। लोकसेवा और प्रख्याति दोनों मिलें, तो मुश्किल में डाल दे मनुष्य को। ख्याति बिना की लोकसेवा हो, तब सच्ची। ख्याति तो होनेवाली ही है, पर ख्याति से इच्छा रहित हो, ऐसा होना चाहिए।“

जिन परोपकार के कार्यों के केंद्र में “मैं ही करता हूँ” "मेरा मान कैसे बढ़े?", "मुझे किस तरह सुख मिले?", "मेरी मनमानी होनी चाहिए" और "मेरी सुविधा बरकरार रहनी चाहिए" ऐसी किसी भी प्रकार की स्वार्थी नीयत हो तो वह खुद का ही नुकसान करती है। मुझे या मेरे कुटुंब को लाभ मिले ऐसी संकुचितता नहीं रखनी चाहिए, बल्कि किस तरह से दूसरों को मदद कर सकते हैं इस भावना के साथ परोपकार करना चाहिए।

परोपकार में अहंकार न करें

नरसिंह मेहता ने लिखा है कि, सच्चा वैष्णवजन तो उसे कहते हैं जो, "परदुःख में उपकार करे तब भी, मन में अभिमान न लाए रे!“

दूसरों पर उपकार करने के बाद अपना वर्तन रौबदार हो जाए, जिस व्यक्ति पर उपकार किया हो, उसके ऊपर अपनी सत्ता और अधिकार स्थापित करना, "मैं लोगों की मदद करता हूँ” ऐसा अभिमान करना आदि, ये सच्चे परोपकार के लक्षण नहीं हैं। ऐसा करने से तो परोपकार की शुद्ध भावना बिगड़ जाती है।

परोपकार के कार्यों में या कुछ अच्छा कार्य किया हो तो उसमें अहंकार नहीं आना चाहिए। फिर भी, अहंकार का आना वह स्वाभाविक है। तब उसका उपाय करना चाहिए। अच्छे कार्य का अहंकार आ जाए तो हमें जब एहसास हो तब जिस भी इष्टदेव या भगवान में श्रद्धा हो उनसे कहना कि, "हे भगवान, मुझे अहंकार नहीं करना, फिर भी हो जाता है, इसलिए क्षमा करना।”

परोपकार के पीछे के उद्देश्य को बनाए रखना

हर क्रिया के पीछे एक उद्देश्य होता है। हमारे पास जो भी योग्यता या विद्या हो, उसका हेतु लोगों की मदद करना होना चाहिए। जैसे, डॉक्टरी की पढ़ाई की हो तो लोगों को बीमारी में मदद कर सकें ऐसा हेतु रखना चाहिए। वकालत पढ़ी हो, तो लोगों को मुश्किलों से बाहर निकालने का हेतु होना चाहिए। शिक्षक हैं तो बच्चों को शिक्षा के साथ-साथ संस्कार देने का हेतु होना चाहिए। लेकिन आजकल हर किसी का हेतु किस तरह ज़्यादा पैसे कमा सकें यही हो गया है।

परम पूज्य दादा भगवान कार्य के पीछे के उद्देश्य का महत्व समझाते हुए कहते हैं कि जब मुख्य हेतु पैसे कमाने का होता है, तब वहाँ हानि होती है और जहाँ मुख्य हेतु लोगों की मदद करने का होता है, वहाँ पैसा अपने आप आ जाता है।

दादाश्री: हर एक काम का हेतु होता है कि किस हेतु से यह काम किया जा रहा है। उसमें यदि उच्च हेतु नक्की किया जाए, यानी क्या कि यह अस्पताल बनाना है, तो पेशन्ट किस तरह स्वास्थ्य प्राप्त करें, किस प्रकार सुखी हो, किस तरह लोग आनंद में आए, कैसे उनकी जीवनशक्ति बढ़े, ऐसा अपना उच्च हेतु नक्की किया हो और सेवाभाव से ही वह काम किया जाए, तब उसका बाइ प्रोडक्शन क्या? लक्ष्मी! अतः लक्ष्मी तो बाइ प्रोडक्ट है, उसे प्रोडक्शन मत मानना। पूरे जगत् में लक्ष्मी को प्रोडक्शन बना दिया है इसलिए फिर उसे बाइ प्रोडक्शन का लाभ नहीं मिलता।

अतः आप यदि सिर्फ सेवा का भाव ही नक्की करो तो उसके बाइ प्रोडक्शन में तो फिर और अधिक लक्ष्मी आएगी। यानी यदि लक्ष्मी को बाइ प्रोडक्ट में ही रखें तो लक्ष्मी अधिक आती है, लेकिन यह तो लक्ष्मी के हेतु से ही लक्ष्मी के लिए प्रयत्न करते हैं, इसलिए लक्ष्मी नहीं आती। इसलिए आपको यह हेतु बता रहे हैं कि यह हेतु रखना 'निरंतर सेवाभाव।' तो बाइ प्रोडक्ट अपने आप ही आता रहेगा।

इस काल में उद्देश्य विस्मृत हो जाता है। यदि डॉक्टरी की पढ़ाई के लिए खूब डोनेशन दिया हो, तो फिर उसे वसूल करने के लिए पेशेंट से पैसा कमाने की प्रवृत्ति जाग जाती है। गरीब मरीज का जैसा-तैसा इलाज होता है और अमीर मरीज हो तो ज़्यादा ध्यान रखते हैं ऐसा भेद उत्पन्न हो जाता है। हरएक व्यवसाय में ऐसी प्रवृत्तियाँ पैदा होती हैं।

नौकरी या व्यवसाय जो भी करते हों, यदि उसमें पैसे कमाने को ही मुख्य हेतु के तौर पर रखेंगे, तो हमें ही पैसों के अंतराय पड़ेंगे। पैसे कमाने के लिए दुराचार या भ्रष्टाचार करते हैं, तो अगले जन्म में नौकरी का कोई ठिकाना नहीं रहेगा ऐसे कर्म बंधेंगे। इसलिए, एक-दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा में उतर कर देखा-देखी में अनीति और अप्रमाणिकता को आचरण में लाने के बजाय, अपने जीवन का एक निश्चित उद्देश्य तय करके उसी से जुड़े रहना चाहिए।

परोपकार के रास्ते में अड़चनों के सामने अडिग रहना

परोपकार के मार्ग में चलते हुए अड़चनें आ सकती हैं। हमने किसी पर उपकार किया हो तो उसके बदले में सामने वाला अपकार भी कर सकता है। उस समय परोपकार पर अपनी श्रद्धा अविचल रखनी चाहिए। हम एकाध बार किसी की मदद करने गए हों और सामने वाला बदले में दुःख दे, तो "धर्म करते हुए नुकसान ही हो गया!" ऐसा कहकर दूसरी बार मदद करना बंद रखें ऐसा नहीं करना चाहिए। यदि हम अच्छा करने जाएँ और सामने से परेशानी आ जाए तो परोपकार से श्रद्धा नहीं उठानी चाहिए।

जब परोपकार से श्रद्धा उठ जाए तब, "मैं दे दूँगा, तो मेरा चला जाएगा?" ऐसे भय उत्पन्न होते हैं। पैसा कमाने की और कीर्ति की लालसा के कारण दूसरों के लिए इसका उपयोग करने में हिचकिचाहट होती है। इतना ही नहीं, अधिक पाने की लालच और दिखावे से प्रेरित होकर भ्रष्टाचार, अनीति या बेईमानी वाला आचरण शुरू हो जाता है। तब यह लक्ष्य में रखना चाहिए कि ऐसा करने से अगले जन्म में रोटी खाने के भी लाले पड़ सकते हैं। यदि आज हम नीति प्रामाणिकता रखकर दूसरों की मदद करेंगे तो इस जीवन में भी शांति रहेगी और अगले जीवन के लिए भी पुण्य बंधेगा। लेकिन मिलावट करके तो यह और आने वाले दोनों जन्मों की जोखिमदारी सिर पर आएगी।

अपना जीवन दूसरों के लिए उपयोग करना है यह तय करने के बाद यदि मार्ग में आंतरिक या बाह्य अड़चनें आएँ तो समझना चाहिए कि पहले उल्टा किया था तो उसका उल्टा फल अभी आ रहा है। जैसे खेत में पहले बाजरा बोया हो, तो आज बाजरे की ही कटाई करनी पड़ेगी। लेकिन अगर आज गेहूँ के दाने डालेंगे तो भविष्य में गेहूँ उगेगा। आज यदि हम सच्चे दिल से परोपकार करेंगे तो उसका फल भविष्य में मिलेगा ही। यही गूढ़ विज्ञान है।

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