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ठाकोरजी की पूजा-भक्ति किस तरह करनी चाहिए?

ठाकुर जी की पूजा

दादाश्री: पूजा करते समय तो कंटाला नहीं आता न?

प्रश्नकर्ता: नहीं।

दादाश्री: पूजा करते हो तो पूज्य पुरुष की करते हो या अपूज्य की?

प्रश्नकर्ता: मैं तो पुष्टिमार्गी हूँ। सेवित ठाकुर जी की स्थापना की है, उनकी पूजा करता हूँ।

दादाश्री: हाँ, लेकिन वे पूज्य हैं, इसलिए स्थापना की है न? जो पूज्य नहीं हों, उनकी पूजा नहीं करनी चाहिए। पूज्य बुद्धि से पूज्य की पूजा करनी चाहिए। पूजा सिर्फ करने की खातिर ही नहीं करनी चाहिए। लेकिन पूज्य बुद्धि से पूजा करनी है। ठाकुर जी पर पूज्य बुद्धि तो है न? ठाकुर जी कभी आपके साथ बातचीत करते हैं क्या!

प्रश्नकर्ता: अभी तक तो लाभ नहीं मिला है।

दादाश्री: ठाकुर जी किस कारण से आपके साथ बात नहीं करते? मुझे लगता है कि ठाकुर जी शर्मीले होंगे या फिर आप शर्मीले हो? मुझे लगता है दोनों में से एक शर्मीला है!

प्रश्नकर्ता: पूजा करता हूँ, लेकिन ठाकुर जी को बुला नहीं सकता।

दादाश्री: बुला नहीं सकते न? हम रामचंद्र जी के वहाँ जयपुर में और अयोध्या में गए थे तो वहाँ रामचंद्र जी बोल रहे थे। हम जहाँ नई मूर्ति देखते हैं वहाँ प्राणप्रतिष्ठा करते हैं। ये बिरला ने जयपुर में और अयोध्या में मंदिर बनवाए हैं, वहाँ हमने रामचंद्र जी की मूर्ति में प्राणप्रतिष्ठा की थी। दोनों जगह पर आश्चर्य खड़ा हुआ था। हमारे महात्मा पैंतीस जने बैठे थे और वहाँ के पुजारी को तो रामचंद्र जी बहुत हँसते हुए दिखाई दिए। उसने तो जब से मंदिर बना था तब से रामचंद्र जी को रूठे हुए ही देखे थे। यानी मंदिर भी रूठा हुआ और दर्शन करनेवाले भी रूठे हुए। रामचंद्र जी की मूर्ति हँसी, वह देखकर पुजारी दौड़ता हुआ आकर हमें फूलमाला पहना गया। मैंने पूछा, ‘क्यों?’ तो वह तो फूट-फूटकर रोने लगा। कहने लगा कि, ‘ऐसे दर्शन तो कभी भी हुए ही नहीं। आज आपने खरे रामचंद्र जी के दर्शन करवा दिए।’ हमने कहा, ‘यह लोगों के कल्याण के लिए किया है। अभी तक रामचंद्र जी रूठे हुए थे, इससे लोगों का क्या कल्याण होता? अब रामचंद्र जी हँसने लगे हैं। अब हमेशा के लिए हँसते छोड़कर जा रहे हैं। जो देखेगा वह भी हँसने लगेगा। हमने प्रतिष्ठा कर दी है। कभी सच्ची प्रतिष्ठा ही नहीं हुई थी।’ ये जो प्रतिष्ठा करते हैं वे वासनावाले लोग हैं। प्रतिष्ठा तो आत्मज्ञानी, ऐसे ‘ज्ञानीपुरुष’ करें तभी वह फल देती है। वासना मतलब समझ में आया न? कुछ न कुछ इच्छा कि, ‘चंदूभाई* काम आएँगे’ इसे वासना कहते हैं। जिसे इस जगत् में किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं है, पूरे जगत् का सोना दें तो भी ज़रूरत नहीं है, विषयों की ज़रूरत नहीं है, कीर्ति की ज़रूरत नहीं है, जिसे किसी प्रकार की भीख नहीं है, वे निर्वासनिक कहलाते हैं, ऐसे ‘ज्ञानीपुरुष’ चाहे सो करें, मूर्ति को बोलती हुई बना देते हैं। आप मूर्ति के साथ बातचीत नहीं करते? लेकिन आपको बोलने की छूट है न? वे नहीं बोलें तो आप बोलना, उसमें क्या हो गया? ‘भगवान आप क्यों नहीं बोलते? क्या मुझ पर विश्वास नहीं आता?’ उनसे ऐसा कहना। इन लोगों से ऐसा कहें तो वे हँस नहीं पड़ते? उसी तरह मूर्ति भी हँस पड़ती है, एक मूर्ति है या दो?

प्रश्नकर्ता: एक।

दादाश्री: नहलाते-धुलाते हो क्या?

प्रश्नकर्ता: हाँ, रोज़ नहलाता हूँ।

दादाश्री: गरम पानी से या ठंडे से?

प्रश्नकर्ता: गुनगुने पानी से।

दादाश्री: वह ठीक है। नहीं तो बहुत ठंडे पानी से नहलाने पर ठंड लगती है और बहुत गरम पानी से नहलाने पर जल जाते हैं। इसलिए हलका गरम पानी चाहिए। ठाकुर जी को रोज़ खाना खिलाते हो या रोज़ अगियारस(एकादशी) करवाते हो?

प्रश्नकर्ता: अगियारस तो मैं भी नहीं करता।

दादाश्री: आप नहीं करते उसमें हर्ज नहीं है, लेकिन ठाकुर जी को भोजन करवाते हो न?

प्रश्नकर्ता: हाँ।

दादाश्री: कितने बजे भोजन करवाते हो?

प्रश्नकर्ता: सुबह आठ बजे भोजन करवाकर, सुलाकर, फिर प्रसाद लेकर ऑफिस जाता हूँ।

दादाश्री: फिर दोपहर को खाना खाते हो?

प्रश्नकर्ता: भूख लगे तब कहीं भी खा लेता हूँ।

दादाश्री: हाँ, लेकिन उस समय ठाकुर जी को भूख लगी है या नहीं उसका पता लगाया?

प्रश्नकर्ता: वह किस तरह करूँ?

दादाश्री: वे फिर रोते रहते हैं बेचारे! भूख लगे तो क्या करेंगे? इसलिए आप मेरा कहा हुआ एक काम करोगे? करोगे या नहीं करोगे?

प्रश्नकर्ता: ज़रूर करूँगा, दादा।

दादाश्री: तो आप जब खाओ न तो उस समय ठाकुर जी को याद करके, अर्पण करके ‘आप खा लीजिए, फिर मैं खाऊँगा, आपको भूख लगी होगी’ ऐसा कहकर फिर खाना। ऐसा करोगे? ऐसा हो सके तो हाँ कहना और नहीं हो सके तो ना कहना।

प्रश्नकर्ता: लेकिन साहब, मैं ठाकुर जी को सुलाकर आता हूँ न!

दादाश्री: ना, सुला देते हो लेकिन भूखे रहते हैं न? इसलिए वे बोलते नहीं हैं न! वे कितनी देर सोते रहेंगे फिर! इसलिए बैठते हैं और सो जाते हैं, फिर बैठते हैं और सो जाते हैं। आप ऐसी खुराक तो नहीं खाते हो न, कि जो उनके लिए चले नहीं। सात्विक खुराक होती है न? तामसी खुराक हो तो हमें नहीं खिलाना चाहिए। लेकिन सात्विक खुराक हो तो आप उनसे कहना कि, ‘लीजिए, भोजन कर लीजिए ठाकुरजी।’ इतना आपसे हो सके ऐसा है? तो कभी ठाकुर जी आपके साथ बोलेंगे, वे खुश हो जाएँगे उस दिन बोलेंगे। क्यों नहीं बोलेंगे? अरे, ये दीवारें भी बोलती हैं! सभी बोल पड़ें ऐसा है, इस जगत् में! भगवान को रोज़ नहलाते हैं, धुलाते हैं गुनगुने पानी से नहलाते हैं, तो क्या हमेशा अबोला ही रहनेवाला है? कोई व्यक्ति शादी करने जाए और पत्नी लेकर आए और वह अबोला ले ले, तो फिर क्या फायदा? बोले ही नहीं उसका क्या करे? यानी भगवान भी बोलेंगे, यदि अपना भाव होगा तो बोलेंगे। आप यह जो पूजा करते हो, वह आपके घर के अच्छे संस्कार हैं।

प्रश्नकर्ता: मैं दूसरे शहर जाता हूँ तो भगवान को साथ ही लेकर जाता हूँ।

दादाश्री: भगवान के बिना तो कोई क्रिया करनी ही नहीं चाहिए। वास्तव में तो ठाकुर जी यह तामसी खुराक लेने को मना करते हैं, लेकिन अब क्या करें? बहुत हुआ तो अबोला(किसी से बोलचाल बंद करना) ले लेंगे, तो बोलना बंद कर देंगे, वर्ना वैष्णवजन को तो बाहर का छूना भी नहीं चाहिए, पानी भी नहीं पीना चाहिए। कितना अच्छा पक्का वैष्णव कहलाता है! मूर्ति को नहलाता है, धुलाता है, वह पक्का वैष्णव कहलाता है। लेकिन क्या करे? अभी संयोगों के हिसाब से किसी को टोकने जैसा नहीं है। संयोगों के अनुसार होता है न? इसलिए मूर्ति नहीं बोलती, वर्ना मूर्ति बोलती है। यदि हर प्रकार से उनके नियमों का पालन करे न, तो क्यों नहीं बोलेंगे? पीतल की मूर्ति है या सोने की?

प्रश्नकर्ता: चाँदी की।

दादाश्री: आज तो सोने की मूर्ति हो तो बच्चे बाहर जाकर बेच आएँ, आपको मेरी बात पसंद आई न?

प्रश्नकर्ता: हाँ, दादा, बहुत पसंद आई।

दादाश्री: अब यदि बाहर खाना खाओगे न, तब भी ठाकुर जी को खिलाकर खाना, उससे आपकी ज़म्मेदारी खत्म हो जाएगी।

*चन्दूलाल = जब भी दादाश्री 'चन्दूलाल' या फिर किसी व्यक्ति के नाम का प्रयोग करते हैं, तब वाचक, यथार्थ समझ के लिए, अपने नाम को वहाँ पर डाल दें।

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